बुधवार, 20 सितंबर 2023

गूगल कृत्रिम बुद्धि

 शीर्षक: भाषा संबंधित बार्ड एआई की उपयोगिता

परिचय:

भाषा मानव संचार का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। यह हमें विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने, दूसरों के साथ जुड़ने और दुनिया को समझने की अनुमति देता है। हाल के वर्षों में, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) ने भाषा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की है। इन प्रगतिओं में से एक है बार्ड एआई, जो एक बड़ा भाषा मॉडल है जो Google AI द्वारा विकसित किया गया है।

बार्ड एआई की उपयोगिता:

बार्ड एआई का उपयोग कई तरह से भाषा से संबंधित कार्यों को करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, इसका उपयोग किया जा सकता है:

  • भाषाओं का अनुवाद करना: बार्ड एआई को कई भाषाओं में प्रशिक्षित किया जाता है, इसलिए इसका उपयोग एक भाषा से दूसरी भाषा में पाठ का अनुवाद करने के लिए किया जा सकता है।
  • रचनात्मक पाठ प्रारूप उत्पन्न करना: बार्ड एआई को कविताएँ, कोड, स्क्रिप्ट, संगीत के टुकड़े, ईमेल, पत्र आदि जैसे रचनात्मक पाठ प्रारूप उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है।
  • प्रश्नों का उत्तर देना: बार्ड एआई को विभिन्न विषयों पर जानकारीपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है।
  • समझने योग्य और सुगम पाठ उत्पन्न करना: बार्ड एआई को समझने योग्य और सुगम पाठ उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है।

बार्ड एआई के लाभ:

बार्ड एआई के कई लाभ हैं, जिनमें शामिल हैं:

  • यह भाषाओं का अनुवाद करने में सक्षम है: बार्ड एआई का उपयोग विभिन्न भाषाओं के बीच पाठ का अनुवाद करने के लिए किया जा सकता है। यह किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी हो सकता है जो एक से अधिक भाषाओं का उपयोग करता है।
  • यह रचनात्मक पाठ प्रारूप उत्पन्न करने में सक्षम है: बार्ड एआई का उपयोग कविताएँ, कोड, स्क्रिप्ट, संगीत के टुकड़े, ईमेल, पत्र आदि जैसे रचनात्मक पाठ प्रारूप उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है। यह किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी हो सकता है जो रचनात्मक लेखन में रुचि रखता है।
  • यह प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम है: बार्ड एआई का उपयोग विभिन्न विषयों पर जानकारीपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देने के लिए किया जा सकता है। यह किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी हो सकता है जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
  • यह समझने योग्य और सुगम पाठ उत्पन्न करने में सक्षम है: बार्ड एआई का उपयोग समझने योग्य और सुगम पाठ उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है। यह किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी हो सकता है जो पाठ को पढ़ने में कठिनाई का सामना करता है।

निष्कर्ष:

बार्ड एआई एक शक्तिशाली उपकरण है जिसका उपयोग भाषा से संबंधित कई तरह के कार्यों को करने के लिए किया जा सकता है। यह किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी हो सकता है जो भाषा का उपयोग करता है, चाहे वह अनुवाद करना, रचनात्मक लेखन करना, ज्ञान प्राप्त करना या पाठ को समझना चाहता हो।


शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

अपूर्ण कविता

 भाई दूज की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏💐

पुनीत की मराठी कविता का हि


■ अपूर्ण कविता


स्कूल छूटने की बेल की आवाज

हवा में गूँज ही रही थी

 तब तक मैं रॉकेट की गति से 

घर पहुंचता था,


पीठ पर लटका बस्ता फेंक

घोड़े जैसा दौड़ कर

पहुँच जाता था खेल के मैदान में,

मस्तमौला बैल सा

धूल मिट्टी में नहाकर

इतराता था अपने मर्द होनेपर,


वो भी आती थी स्कूल से

घर के चार मटकियां पानी से भर

घर आंगन बुहारकर

देवघर में ज्योत जगाकर

वह बनाती थी रोटी

मां जैसी गोल गोल,

और राह निहारती देहरी पर

माँ के लौटने तक जंगल से,


वह चित्र निकालती थी

और रंगोली सजाती

घर के आंगन में,

मीरा के भजन और

पुस्तक की कविताएं

गाती थी मीठे स्वर में,


बर्तन मांजना, कूड़ा कचरा बीनना

आँगन बुहारना, 

और न जाने कितने काम

वह करती रही,


मैं हाथ पांव पसारकर

सो जाता था

वह किताबे लेकर बैठती थी

दीपक की रोशनी में देर रात तक,


एक ही कक्षा में थे हम

गुरुजी कान मरोड़कर

या कभी शब्दों की फटकार से

मुझे उपदेश देते

" तेरी बड़ी बहन जैसा बनेगा तो

जीवन सुधर जाएगा तेरा "

मैं दीदी की शिकायत करता था माँ के पास,


मैट्रिक का पहाड़

पार किया मैंने फूलती साँस लेकर

उसने अच्छे अंक हासिल किए थे

बापू ने कहा

मैं दोनों का खर्चा नहीं उठा पाऊंगा,


आंख का पानी छुपाकर

उसने कहा था

" भैया को आगे पढ़ने दीजिए"

उसके बाद जन्मे भाई के

 रास्ते से चुपचाप हटकर

वह बनाती गई उपले,

माँ के साथ खेती का काम करती

काँटे झाड़ी हटाती गई,

नारी बनकर अंदर ही अंदर

टूटती गई, 


उसके भाग्य का कौर चुराकर

मैं आगे बढ़ता गया

किताबों की राह पर,

 

 मैं बात जान गया था

दिल में टिस रह गयी

उसने आंख का पानी 

क्यों छुपाया था,


उसको ब्याह कर

बापू आज़ाद हुए

माँ की जिम्मेदारी खत्म हुई

अभी तक मेरा मन

अपराधी है अव्यक्त बोझ तले,


भैयादूज, रक्षा बंधन के दिन

दीदी मायके आती रही

सहर्ष सगर्व 

छोटे भाई के वैभव देख कर

हर्ष विभोर होती रही,

बुरी नजर उतारती रही

भारी आंखों से आरती उतारती रही,


ससुराल लौटते हुए

छोटे भाई को देती रही अशेष आशीष,


उसके जाने के बाद

मेरा मन जलता रहा दीपक समान

जिसकी रोशनी में

वह पढ़ती थी किताबें

और कविताएँ

उसकी कविता

मेरे लिए 

रही अपूर्ण।

■■

हिंदी अनुवाद-

 विजय विजय प्रभाकर नगरकर  

मूल मराठी कविता -

 पुनीत मातकर | गडचिरोली |

वीर सावरकर राष्ट्रभाषा

 वीर सावरकर एक जगह लिखते हैं कि 

"भारतवर्ष के कोने कोने में उत्तर से दक्षिण,दक्षिण से उत्तर, पूरब से पश्चिम, पश्चिम से पूरब तक बोली जाने वाली आम जनता की संपर्क सर्वसाधारण भाषा एकमात्र हिंदी ही हो सकती है।

 भारतवर्ष में चारों धामों में शंकराचार्य के पीठ स्थापित हुए हैं। वहां धार्मिक विचारों का आदान-प्रदान हिंदी के माध्यम द्वारा होता आ रहा है।"


 आगे वे कहते हैं कि

" इंग्लैंड में हमारा क्रांतिकारियों का दल था। हम प्रतिदिन प्रण दुहारते थे कि हमारा देश हिंदुस्तान,हमारा गीत वंदे मातरम और हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है"।

भैंस

 मैंने भैंस के बारे में कुछ कहावतें सुनी थी जैसे


*काला अक्षर भैंस बराबर*


*जिसकी लाठी उसकी भैंस*


*गई भैंस पानी में*


* भैंस के आगे बीन बजाना*


 *भैंस बैठ पगुराये*


* भैंस पूछ उठाएगी तो गाना नहीं गाएगी गोबर करेगी* 


*दुधैल गाय की लात भली लगती है*


भैंस पर कुछ मजेदार कविताएं भी लिखी गई है ।हास्य ललित निबंध भी पढ़े हैं।


लेकिन मुझे तब आश्चर्य हुआ जब मेरे शहर के एक गरीब ग्वाला मित्र दिलीप शहापुरकर ने भैंस विषय पर गंभीर संवेदनशील काव्य संग्रह "महिषायण" लिखा है। यह ग्वाला समाज का एक रामायण ही है। 


 आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण अब तक उसका मराठी काव्य संग्रह अप्रकाशित है। यह बात करीब 25 साल पुरानी है। आज पुराना रेकॉर्ड देखते समय कुछ कविताएं हाथ लगी। उसके आग्रह पर मैंने उस संग्रह का हिंदी अनुवाद भी किया है। उसे कुछ पैसे भी दिए थे। पता नहीं वह कब प्रकाशित होगा। दिलीप एक संवेदनशील मराठी कवि और बेहतरीन चित्रकार भी है। उसने भैंस पर अनेक विविध तरह के कलात्मक चित्र निकाले हैं। 


पारिवारिक जिम्मेदारी और आर्थिक विपत्ति के दिनों में न जाने कितने लेखक, कवि, चित्रकार, रंगमंच कलाकार की प्रतिभा कुचल गई है। जिंदगी से समझौता करते हुए कितने लोग फिसल गए है। दुःख होता है जब अनेक कलाकार विपन्न परिस्थिति से संघर्ष करते हुए जी रहे है। समय का पहिया अजीब तरह से घूमता है।


काल की महिमा अपरंपार है।प्रतिभा होते हुए भी हम खुलकर कोई गीत गा नहीं सकते।कभी रंगमंच पर अपने अभिनय के कौशल दिखा नहीं पाते। कभी हमारी कविता के फूल खिलकर भी मुरझा जाते हैं।


अनुवाद करते समय मूल भाषा की विशेष शब्दावली, सांस्कृतिक संदर्भ ध्यान में रखने पड़ते है। कुछ अज्ञात शब्दों का सामना हो जाता है जैसे एक शब्द था "जानी"। पूछने पर दिलीप ने कहां कि "हमारे समाज में हर परिवार में एक जानी गाय, भैंस होती है। उसे हम एक पूंजी समझकर पालते है। उसे अन्य गाय,भैंस से अलग रखते है। उसका दूध हमें पूजनीय होता है। उस दूध की बिक्री नहीं की जाती। हमारे परिवार के बच्चों को जानी गाय, भैंस का दूध दिया जाता है" 


महाराष्ट्र में हर दिवाली के वर्ष प्रतिपदा, पाडवा के दिन "सगर महोत्सव मनाया जाता है। इस दिन गांव के विशाल मैदान में भैंसों, पाड़ों को एकत्रित करके उनकी पूजा की जाती है। भैंस को लक्ष्मी और रेड़ा, भैंसा को यमराज माना जाता है।


 मैं इस तरह की प्रथा से अनजान था। हमारे समाज में व्याप्त इन विलक्षण बातों को गहराई से समझना होगा।


अनुवाद करते समय मेरे बांग्ला मित्र, लेखक सुमित पाल ने सहायता की। सुमित ने उर्दू फारसी पर पी. एच.डी. की है। आजकल सुमित के लेख निरंतर देश अनेक सुप्रसिद्ध उर्दू, अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं।


अनुवाद के कुछ अंश सादर प्रस्तुत है।


 " महिषायण" 


आप पूजा विधि में 

दूध घी का अभिषेक करते है

वहां झोपड़ी में कोई बच्चा

 दूध के बिना ही सो जाता है,


 हम दूध का दान करते हुए अपना अस्तित्व भूल जाते हैं लेकिन हमारे सूखे पन में 

कसाई का घर 

मनुष्य हमें दिखाता है ,


 संत ज्ञानेश्वर ने

 हमारे मुख से 

वेद कहलाएं है,

 विज्ञान युग ने 

हमें गूंगा बनवाया है,


परंपरागत यह रिवाज चला आ रहा है 

लोगों के बाजार में हमारा नीलाम होता आ रहा है 

हमारे दूध की मात्रा पर

उनका सौदा तय होता है,


तुम हमारे कान कतरते हो 

नक्काशीदार

 क्योंकि भैंस लगे सुंदर 

 हम कब तक बर्दाश्त करें

  वेदना आप के खातिर, 


आप बड़े चालाक धूर्त 

हमारे सामने खड़ा कर देते हो हमारे मृत पाड़े का भोत 

आप कितने अनुभवी होशियार, 

निरंतर हमारा दूध 

चुराकर ले जाते है 

अपने घर परिवार,


भैंस बरकतदार

 गरीबों का तारणहार 

इसलिए यह कल्पवृक्ष 

खड़ा है हमारे द्वार।


****

(मराठी "भोत" का अर्थ मृत पाड़े के शरीर में भूसा भरकर दूध दुहते समय भैंस के सामने रखा जाता है, ताकि उसे चाट कर भैंस दूध दे। पता नहीं इसे हिंदी में क्या कहते है?)

****

(प्रकाशनाधीन मराठी

 " महिषायण" काव्य संग्रह से साभार।)

मूल मराठी कवि -

दिलीप शहापुरकर

हिंदी अनुवाद - 

विजय नगरकर

ऑनलाईन

 लक्ष्मी पूजन के दिन फूल खरीदने गया था। पैसे देने लगा तो जेब खाली थी। मनी पर्स घर पर ही भूल गया था। फूलवाली ने कहा " कोई बात नहीं,बाबूजी, मोबाइल से पैसे देना"

रोड पर बैठी उस गरीब बुजुर्ग महिला को देखकर पूछा 

"मौसी, मोबाइल तो है लेकिन आपके पास फोन पे , क्यू आर कोड कहा है?"

फूलवाली ने वही वजन कांटे का पलड़ा उठाया और पीछेवाला कोड दिखाया। रोड पर  छोटी जगह में वह कहां फोन पे, क्यू आर कोड का बैनर लगा सकती थी?


ऑनलाइन के जमाने में छोटे छोटे दुकानदार भी नई तकनीक से परिचित हुए है। बहुत अच्छा लगा, पूछा "क्या एक फोटो ले सकता हूं?"

सहर्ष पोज देते हुई फूलवाली ने कहां " बाबूजी पेट की भूख वर्तमान तकनीक भी सीखा देती है"


सोमवार, 26 अप्रैल 2021

हिंदी तकनीकी ब्लॉगर बी एस पाबला जी नहीं रहे

 

नहीं रहे  ब्लॉगिंग की दुनिया के बेताज बादशाह

गिरीश पंकज

ब्लॉगिंग की दुनिया के बेताज बादशाह कहे जाने वाले असरदार सरदार (बलविंदर सिंह ) बीएस पाबला जी भी इस कोरोना काल  में उसकी चपेट में आ गए।  तकनीकी की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए यह एक बड़ी क्षति कही जाएगी । भिलाई इस्पात संयंत्र में महत्वपूर्ण पद पर कार्य करते हुए पाबलाजी वर्षों से एक मशहूर ब्लॉगर के रूप में सक्रिय रहे।  देश-विदेश के अनेक लोगों के ब्लॉग उन्होंने भिलाई में बैठकर बनाए। जब कभी किसी को मदद की जरूरत पड़ती, वह सबको विनम्रतापूर्वक सहयोग करते। कुछ वर्ष पहले जब भारत सरकार की किसी वेबसाइट को पाकिस्तानी हैकरों ने हैक किया था, तो सरकार ने पाबला जी से ही तकनीकी मदद ली थी । पाबला जी अनेक हैकरों की हेकड़ी निकालने में माहिर थे। पुलिस वाले भी साइबर क्राइम के मामले में पाबला जी की मदद लिया करते थे।  एक दशक पहले ब्लॉग बनाने के लिए पाबला जी ने भी मेरा मार्गदर्शन भी किया था।  तब मैंने भी अपने तीन ब्लॉग बना लिए थे और ब्लॉगिंग की दुनिया में बहुत सक्रिय हो गया था । तब से उनसे मेरे बेहद आत्मीय संबंध रहे । छत्तीसगढ़ के कुछ ब्लॉगर  देश में बड़े लोकप्रिय  हुए ,जिनमें नंबर वन पर पाबला जी थे। तकनीकी के प्रति उनका बड़ा गहरा लगाव था । यही कारण है कि उनके घर में भी तकनीकी दुनिया के दर्शन होते थे ।वह अपने मोबाइल के जरिए बिजली चालू- बंद करते थे । दरवाजे भी मोबाइल के जरिए ही खुलते और बंद होते थे। मैं अच्छे लेखक भी थे । पाबला जी की लेखन- शैली कमाल की थी। मंत्रमुग्ध कर देने वाली। बतिया-सी लेखनी।  वे लोगों को इंटरनेट के माध्यम से आमदनी के गुर सहज सरल तरीके से बताते थे ।  ब्लॉगिंग के जरिये वे खुद अच्छी खासी कमाई कर लेते थे।  कंप्यूटर के अद्भुत जानकार पाबला जी उतने ही व्यवहार कुशल थे। न जाने कितनी बार रायपुर  और भिलाई में उन से मुलाकातें होती रही।  इस बीच पाबला जी पारिवारिक दृष्टि से निरंतर टूटते रहे। परिवार के अनेक सदस्य धीरे-धीरे बिछड़ते रहे।  और अंत में हालत यह हुई कि अब उनकी एक बेटी है जो बाहर रहती है। अंतिम समय में वे अपने पालतू कुत्ते मैक मैं के साथ ही जीवन बिता रहे थे। वे अक्सर उसकी तस्वीर फेसबुक में डाला करते थे। हालांकि बाद में पाबला जी ने फेसबुक अकाउंट ही बंद कर दिया था। 

उनके साथ नेपाल की यादगार यात्रा

दुखों का पहाड़ पाबला जी पर टूटता रहा, मगर वे मजबूती के साथ डटे रहे और ब्लॉगिंग करते रहे।  बाद में वे फेसबुक की दुनिया से भी जुड़े और उस के माध्यम से हम उनके और रोमांचकारी जीवन से भी अवगत होते रहे । रोमांचकारी से मेरा आशय यह  कि वह मस्तमौला  यायावरी व्यक्तित्व के धनी थे और लंबी-लंबी यात्राएं अपनी मारुति ईको कार से किया करते थे । अकसर अकेले ही निकल जाते थे। हालांकि कई बार वे  दुर्घटनाग्रस्त होते-होते भी बचे लेकिन उन्होंने लॉन्ग ड्राइव की अपनी आदत नहीं छोड़ी। मेरा सौभाग्य रहा कि एक बार उनके साथ मैंने उनकी ही कार में काठमांडू तक की यात्रा की। यह बात है अक्टूबर ,2013 की । उस रोमांचकारी यात्रा को मैं कभी नहीं भूल सकता।  मेरे साथ मेरे  एक और यायावरी में माहिर ब्लॉगर ललित शर्मा भी थे । हम तीनों काठमांडू में होने वाले ब्लॉगर सम्मेलन के लिए शामिल होने निकले थे। यह आयोजन लखनऊ के साथी ब्लॉगर रवींद्र प्रभात ने आयोजित किया था। पाबलाजी ने कहा कि '' बाशशाओ, कहां ट्रेन से इधर-उधर भटकते हुए काठमांडू जाएंगे।  बेहतर होगा कि हम लोग कार से ही सुनौली बार्डर होते हुए नेपाल पहुँचें। मुझे भी कार से लंबी यात्रा का शौक है इसलिए सहज ही तैयार हो गया। पाबला जी की गाड़ी में उस समय नेविगेटर (जीपीएस सिस्टम) विशेष रूप से लगा हुआ था।  अब तो हर कार में जीपीएस की सुविधा है।  उस वक्त नहीं थी । पर पाबला जी की गाड़ी में नेविगेटर लगा था और मजे की बात, उन्होंने कार में ब्लैक बॉक्स भी लगा कर रखा था, जो हवाई जहाज में लगा होता है। जिसके माध्यम से प्रतिपल की रिकॉर्डिंग होती रहती है।  यात्रा का बेहद रोमांचकारी अनुभव लौटकर ललित शर्मा ने लिखा।  पाबला जी ने बहुत खूब लिखा । यात्रा-वृतांत पढ़ने के शौकीन मित्रों से आग्रह है कि इस रोचक और रोमांचकारी यात्रा-वृतांत पढ़ने के लिए 'ललितशर्माडॉटकॉम' और पाबला जी के ब्लॉग को जरूर खंगालें।  यात्रा वृतांत कैसे लिखे जाते हैं, इन्हें पढ़कर समझा जा सकता है। 


पाबला जी दुर्ग से निकले और नेविगेटर की मदद से सुबह छह बजे मेरे घर पहुंच गए।  मैं तब चकित रह गया, तो उन्होंने बताया,  ''यह साडे नेविगेटर का कमाल है जी!'' ललित शर्मा भी तब तक घर पहुंच गए थे। उसके बाद हमारी काठमांडू यात्रा शुरू हुई।  अंबिकापुर, रेनुकोट होते हुए हम गोरखपुर पहुंचे। उस वक्त रास्ते की हालत बेहद खराब थी । कई बार पाब्ला जी कार कीचड़ भरी सड़क में फँस जाती, तो कहीं सड़क नाम की कोई चीज ही नहीं थी।  धीरे-धीरे कार आगे सरकती । बड़ी मुश्किल से वह आगे बढ़ते। लेकिन मजाल है कि एक बार भी उनके चेहरे पर शिकन आई हो। वह सिस्टम को कोसते और मुस्कान बिखेरते हुए कार चलाते। जब कभी उनका मूड होता रास्ते में चाय पानी के लिए रुक जाते। रास्ते में कहीं कहीं दर्शनीय स्थल भी मिले, तो कहते, ''चलो इसे भी देख लेते हैं।'' हमनेे चुनारगढ़ को निकट सेे देखा। यह वही चुनारगढ़  है, जिसका जिक्र देवकीनंदन खत्री ने  चंद्रकांता संतति में किया है। हम जर्जर रास्तों को पार करके किसी तरह गोरखपुर पहुँचे। पाबला जी ने गूगल में सर्च कर गोरखपुर के एक होटल को होटल में रुकना तय किया।  नेविगेटर  में होटल का नाम भर दिया। बस क्या था। गोरखपुर जब हम पहुंचे तो उनकी कार होटल के ठीक सामने रुकी । नेविगेटर बाला का पंजाबी स्वर  उभरा, ''साड्डा होटल आ गया है।''  नेविगेटर  को वे 'नेविगेटर बाला' कहते थे। उनकी नेविगेटर बाला पंजाबी में निर्देश देती थी,  जिसे सुनकर मुझे बड़ा आनंद आता था। रात्रि विश्राम कर हम सुबह सुनौली बॉर्डर होते हुए नेपाल की सीमा में प्रवेश किए। फिर रास्ते में तमाम तरह के रोचक अनुभव से गुजरते हुए  लगभग तरह सौ किलोमीटर की यात्रा तय करके देर रात काठमांडू पहुंच गए।  वहां पाबला जी को चाहने वाले लोगों की भीड़ थी । पाबला जी उन से घिरे रहे । पाबला जी का वहाँ  सम्मान भी हुआ।  फिर तीसरे दिन हम सुबह-सुबह वापस होने लगे । होटल के बाहर पाबला जी की कार पार्क थी।  वह कार को रिवर्स कर ही रहे थे तभी पीछे का कांच बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया।  अब समस्या यह हुई इतनी बड़ी यात्रा बिना कांच लगाए कैसे हो। कांच लगाने का खर्चा भी बहुत अधिक था इसलिए पाबला जी ने कहा, पीछे हम अपनी चादर लगाकर काम चला लेंगे । आज दुर्ग पहुंचकर ही लगवाऊँगा।  पाबला जी और ललित ने किसी तरह से चादर बांधी और फिर पाबला जी पहले की तरह उत्साह के साथ ड्राइविंग सीट पर बैठ गए और निकल पड़े छत्तीसगढ़ की ओर।  हम लोग पाबला जी से अनुरोध करते रहे कि हमें भी बीच-बीच में कार चलाने का मौका दें ताकि आपको कुछ आराम मिल जाए ,लेकिन पाबला जी जिद्दी सरदार थे। बोले, ''नहीं कार तो मैं ही चलाऊँगा। हां जब मुझे नींद आएगी, तो रास्ते में कहीं भी गाड़ी खड़ी करके एकाध घंटे की नींद ले लिया करूंगा।'' और ऐसा ही हुआ।  पाबला जी के साथ हम लोग बतियाते हुए यात्रा करते  रहे । रास्ते में पाबला जी को कहीं लगता कि नींद आ रही है, तो वे  फौरन गाड़ी रोक देते और कार में ही सो जाते।  तब हम और ललित आपस में गप मारते बैठे रहते या आसपास घूमघाम कर समय बिताते। रास्ते में कहीं आंधी चलती । कहीं जोरदार बारिश होती, मगर पाबला जी तनिक भी विचलित नहीं होते थे। पूरी तरह सतर्क होकर कार चलाते  हुए हम लोगों को सकुशल रायपुर पहुंचा दिया। फिर भिलाई की ओर प्रस्थान किया।  भिलाई पहुंच कर उन्होंने फोन करके सूचित किया कि मैं पहुंच गया हूँ। पाबला जी के साथ चार-पाँच दिन की वह नेपाल यात्रा आज भी मेरे ज़ेहन में बसी हुई है। इस दौरान पाबला जी का जीवंत व्यक्तित्व मैंने निकट से देखा।  बेहद सहज-सरल -बिंदास! अद्भुत तकनीकी व ज्ञान से भरे हुए मगर उतने ही विनम्र । बहुत कम होते हैं ऐसे लोग।


अब पाबला जी वाहेगुरु जी की शरण में चले गए  हैं। मगर उनका प्रदेय इंटरनेट के माध्यम से हमारे बीच मौजूद रहेगा।  मैं चाहूंगा कि लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उनके ब्लॉगों को जरूर देखें।  इसका लाभ यह होगा कि हमें काम की अनेक दुर्लभ जानकारी मिलेगी। पाबला जी के महत्वपूर्ण ब्लॉग इस प्रकार हैं , जिन्हें  हम सर्च करके देख सकते हैं। जैसे, कम्प्यूटर सुरक्षा, ज़िंदगी के मेले,शोध व सर्वे, कल की दुनिया, हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन, My SMSs, इंटरनेट से आमदनी, ब्लॉग बुखार।

पाबला जी को शत-शत नमन!





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गिरीश पंकज 
(गिरीशचंद्र उपाध्याय)
व्यंग्यश्री, 2018, हिंदी भवन, नई दिल्ली
संपादक, सद्भावना दर्पण
(भारतीय एवं  विश्व साहित्य के अनुवाद की त्रैमासिकी)
सेक़्टर -3, एचआईजी - 2 , घर नंबर- 2 , 
दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010
मोबाइल : 9425212720, 877 0969574 
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बीस खंडों में 'गिरीश पंकज रचनावली' प्रकाश्य 
10 उपन्यास, 30 व्यंग्य-संग्रह, 4 कहानी-संग्रह, 7 ग़ज़ल-संग्रह सहित 90  पुस्तकें
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सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, 
प्रांतीय अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012)
------------------------------------------------------------------------
1- http://sadbhawanadarpan.blogspot.com
2 - http://girishpankajkevyangya.blogspot.com
3 -http://girish-pankaj.blogspot.com


शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

मी तुला अर्पण करून जाईल


मी माझे सर्वस्व तुला अर्पण करून निरोप घेईल

मुलांनो, मी  माझी विनम्रता गिळंकृत केली आहे
मी माझी बनावट संपत्ती तुम्हाला वारस 
ठेऊन जात आहे

मी विशेषज्ञ आहे
मी गांभीर्य पांघरून फिरत आहे
मला प्रत्येक भेटणारा माणूस मूर्ख वाटतो
मी  ही मुर्खता तुला स्वाधीन करून जात आहे

मी तुला माझे भरजरी वस्त्र,
भाषा वैभव
आणि माझा अहंकार
तुला अर्पण करून निरोप घेईल

मी कचरा पेटीत फेकून दिली आहे
सारी सहजता आणि तरलता
मी गंभीर राहील त्या क्षणा पर्यंत
जो पर्यंत माझा सन्मान होत राहील

जरा कुठे माझ्या विरोधात सूर निघतील
तेव्हा पहा माझी मानसिकता, वाचिकता
आणि शारीरिक हिंसा

माझ्या आत हिंस्त्र पशु आहे व
बाहेर एक आदर्श पुरुष आहे,
माझ्या मुलांनो तुम्हाला
 अर्पण करील माझा  हा दुटप्पीपणा

मी छता वरून लाँच झालेले 
रॉकेट आहे
का मोडक्या झोपडीतून
हवेत फेकलेला भाला आहे,
मी काय होतो या पेक्षा
जास्त महत्वाचे आहे की
मी काय झालो आहे,
जे काही असेल ते
 अर्पण करून निरोप घेईल

गल्लीत बलात्कार असो, दंगल असो
 मी तुला माझा शेळपटपणा अर्पण करून
शिकवून जाईल 
कसे शेपूट घालून
दार खिडकी बंद करून घरात राहावे,

शेजारील घरात गरीब मुले भुकेने मरत आहेत
तू मात्र गिळत रहा पुरी भजे, सुका मेवा
मी तुला ही अव्वल निष्ठुरता
अर्पण करून निरोप घेईल

तुला पाऊले पाऊले दिसतील
अर्धनग्न मळकट पिचलेली
असंख्य बालके आणि बाया
तू त्याकडे दुर्लक्ष करीत
तुझी किमती बनारस साडी
आणि पॅन्ट सावरीत
अलगद निघून जा
मी तुला ही महान बेफिकीर
 निर्लज्ज-परंपरा अर्पण करून निरोप घेईल

माझे साहित्य जगात वाचले जाते
अनेक भाषेत माझ्या पुस्तकांचा
अनुवाद झाला आहे
या अहंकाराच्या दुनियेत फुगून जाईल
आणि हीच हवा तुझ्या डोक्यात भरून
मी तुझा निरोप घेईल

माझे जे जे काही आहे
ते ते तुला अर्पण करून
तुमचा निरोप घेईल

   मूळ हिंदी कविता-
  ~अनामिका अनु
मराठी अनुवाद- विजय नगरकर

********
मूल हिंदी कविता

मैं अपना सबकुछ तुम्हें दे कर जाऊँगा 

बच्चों मैं पूरी विनम्रता खा चुका हूँ 
मैं  तुम्हें बनावटीपन विरासत में देकर जाऊँगा 

मैं विशेषज्ञ हूँ
मैं गंभीर अहं को पहन कर निकलता हूँ
बेवकूफ़ लगता हैं मुझे हर दूसरा व्यक्ति 
मैं यही बेवकूफ़ी तुम्हें देकर जाऊँगा 

मैं अपने बढ़िया कपड़े,
भाषा पर पकड़
और अपनी अकड़ दे कर जाऊँगा 

 मैंने डस्टबीन में फेंक दी है सारी सहजता, सरलता 
और तरलता
मैं तब तक ही  गंभीर रहूँगा
जब तक मेरा सम्मान होगा ।
 ज़रा सी ठेस पहुँचायी किसी ने
तब देखना मेरी मानसिक,वाचिक और शारीरिक हिंसा
मैं  भीतर से पशु ,बाहर से सलीकेदार आदमी हूँ
मैं   देकर जाऊँगा यह दोहरापन तुमको ,मेरे बच्चे!

मैं  छत पर से लान्च हुआ रॉकेट हूँ
या टूटी झोपड़ी से फेंका भाला!
क्या था ,से ज़्यादा महत्वपूर्ण है
क्या बना मैं !
जो बना वह देकर जाऊंँगा

गली में रेप, लूट, दंगा होगा
खिड़की लगाकर दुबकना सीखा दूँगा
मैं तुम्हें अपनी पूरी कायरता दे कर जाऊँगा

बगल में  मर जाएँगे भूखे बच्चे
तुम चबाते रहना पूरी भुजिया और सूखे मेवे
मैं  तुम्हें वह अव्वल दर्जे की निष्ठुरता देकर जाऊँगा

नग्न, मैली, कुचली औरतें और बच्चे कई बार दिखेंगे-देखेंगे तुमको
तुम अनदेखा कर ठीक करना अपनी बनारसी और पतलून
मैं वह महान निर्लज्ज निष्फ़िक्र परंपरा तुमको देकर जाऊँगा । 

मैं दुनिया भर में पढ़ा जाता हूँ 
कई भाषा में अनुवाद हुआ है मेरे कहे लिखे का,
इसी गुमान में  जीवन भर फूला रहा हूँ मैं
और तुम में यही ग़ुबार भर कर जाऊँगा

मेरा जो कुछ भी है
तुम्हें देकर जाऊँगा! 
 
~  अनामिका अनु

Anamika Anu 


बुधवार, 10 जून 2020

''जन्म से पहले एक प्रार्थना''

''जन्म से पहले एक प्रार्थना''

क्या आप सुन रहे हो?
मैं अभी जन्मा नहीं हूँ

मुझे बचाओ
रक्तपिपासु पिशाचों से
चूहे से, नेवले से तथा
खूंखार दरिंदों से

मैं अभी तक जन्मा नहीं हूँ
मुझे बचा लो
मुझे डर है कि
यह मानव जाति
अपनी रहस्यमयी दुनिया में
मुझे कुचलकर खामोशी से मिटा देगी

मुझे गहरे नशे में डुबो कर
 झूठे सपनों से
मुझे बहकाएगी ।
अपने स्वार्थ की बलिवेदी पर
रक्तरंजित कर देगी ।

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
मुझे पानी में छपाछप करने दो
मुझे खुशी से उछलने दो 
माँ की दुब में बढ़ने दो 
पेड़ों को मुझसे बात करने दो
मेरे लिए आकाश को गीत गाने दो

पंछियों और सुबह की धूप को आने दो 
मेरे मन के भीतर रास्ता दिखाने ।

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
मुझे माफ़ करना
मेरे पाप इस दुनिया में
 खड़े हो जाएंगे
वे मेरे शब्द बनकर मेरे सामने बोलेंगे
वे वही सोचेंगे जो मेरे विचार होंगे
मेरे गद्दार विरोधी मेरे पीछे राजद्रोह  करेंगे मेरे पीठ पीछे वार करेंगे
वे मेरे ही हाथों से मेरा जीवन
 समाप्त करेंगे,
मेरे मृत्यु  समाधी  पर
उनका जीवन लहलहायेगा

मैं अभी जन्मा नहीं हूं
मुझे मेरे नाटक के अंक में
रिहर्सल  करने दो,
मुझे कोई संकेत मिलेगा, 
जब वह बूढें सयाने मुझे पढ़ाने लगेंगे
जब  सत्ता  मुझे सताने लगेगी
जब  कोई  उत्तुंग पहाड़  
मुझे भयाक्रांत करेगा,
जब प्रेमी मुझ पर हंसेंगे
रुपहले बादल मुझे मूर्ख बनाएंगे,
जब रेत की आंधी कयामत बरपाएगी
जब कोई याचक मेरा दान ठुकरायेगा
और मेरे बच्चे मुझे धिक्कारेंगे,

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
क्या आप सुन रहे हो?
मेरे पास उस आदमी को
मत आने देना
जो अपने आप को
शैतान या ईश्वर समझता है

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
मुझे शक्ति देना
जिससे मैं संघर्ष करूंगा,
जो मेरी मानवता को 
निष्क्रिय कर देना चाहता है
जो मुझे भयंकर पत्थर दिल 
मानव में ढालना चाहता है,
जो मुझे एक मशीन का दांता बनाएगा
जो चेहरे पर एक मासूम सी अदा लेकर
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को नष्ट करेगा
एक प्रहार करके
मुझे चूर चूर करेगा
जैसे अंजुली का पानी छलक जाए

उनको मुझे पत्थर बनाने मत देना
या न ही छलकने देना
 यह न कर पाओ तो
 मुझे नष्ट कर देना
****

अनुवाद- विजय नगरकर
vpnagarkar@gmail.com
09657774990

मूल अंग्रेजी कविता-  'Prayer before birth'
 Poet -. Louis MacNeice

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

बलराज साहनी का हिंदी प्रेम

टैगोर ने कहा पंजाबी में लिखो, बलराज साहनी ने कहा हिन्दी देश की भाषा
बलराज साहनी 
(बलराज साहनी प्रतिबद्ध अभिनेता भर नहीं रहे, लेखक और चिंतक भी रहे. इप्टा के साथ ही वे प्रगतिशील लेखक मंच से भी जुड़े रहे. यहां हम उनके एक काफ़ी लम्बे पत्र का एक अंश छाप रहे हैं, जो उन्होंने सन् 1970 के आसपास लिखा था. उस दौर की हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने जब उनका यह ख़त नहीं छापा तो उन्होंने इसे पैम्फ़लेट की शक़्ल में छपाकर अपने कुछ लेखक दोस्तो के पास भेजा था. उस दौर में जब वह बाक़ायदा फ़िल्मों से वाबस्ता थे, भाषा और साम्प्रदायिकता के सवालों से भी जूझ रहे थे. उनके नज़रिये और फ़िक्र को इस ख़त से समझा जा सकता है.)
कभी मेरा भी नाम हिन्दी लेखकों में गिना जाता था. मेरी कहानियां अपने समय की प्रमुख पत्रिकाओं – विशाल भारत, हंस आदि में – नियमित रूप से प्रकाशित हुआ करती थीं. बच्चन, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, उपेंद्रनाथ अश्क – सब मेरे समकालीन लेखक और प्रिय मित्र हैं.
मेरी शुरू की जवानी का समय था वह – बहुत ही प्यारा, बहुत हसीन. मैंने कुछ समय शांतिनिकेतन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के पास और कुछ समय सेवाग्राम में गांधी जी के चरणों में बिताया. मेरा जीवन बहुत समृद्ध बना. शांतिनिकेतन में मैं हिन्दी विभाग में काम करता था. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरे अध्यक्ष थे. उनकी छत्रछाया में हिन्दी जगत के साथ मेरा सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया. सन् 1939 के अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में वे मुझे भी अपने संग प्रतिनिधि बनाकर बनारस ले गए थे, और वहां मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, निराला और साहित्य के अन्य कितने ही महारथियों से मिलने और उनके विचार सुनने-जानने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ.
यद्यपि आजकल मैं हिन्दी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा पंजाबी में लिखता हूं, फिर भी आप लोगों से ख़ुद को अलग नहीं समझता. आज भी मैं हिन्दी फ़िल्मों में काम करता हूं, हिन्दी-उर्दू रंगमंच से भी मेरा अटूट सम्बन्ध रहा है. ये चीज़ें, अगर साहित्य का हिस्सा नहीं तो उसकी निकटवर्ती ज़रूर हैं.
हिन्दी हमारे देश की एक विशेष और महत्वपूर्ण भाषा है. इसके साथ हमारी राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता का सवाल जुड़ा है. और इस दिशा में, अपनी अनेक बुराइयों के बावजूद, हिन्दी फ़िल्में अच्छा रोल अदा कर रही हैं.
लेकिन इस असलियत की ओर से भी आंखें बंद नहीं की जा सकतीं कि हिन्दी, कई दृष्टियों से, अपने क्षेत्र में और उससे बाहर भी कई प्रकार से साम्प्रदायिक और प्रांतीय बैर-विरोध और झगड़े-झमेले का कारण बनी हुई है. कई बार तो डर लगने लगता है कि कहीं एकता के लिए रास्ते साफ़ करने के बजाय वह उन रास्तों पर कांटे तो नहीं बिछा रही, जो हमें उन्नति और विकास के बजाय अधोगति और विनाश की ओर ले जाना चाहती है, जो हमारे पांव में फिर से साम्राज्यवादी ग़ुलामी की बेड़ियां पहनाना चाहती हैं.
उर्दू कन्वेंशन
पिछले साल, दिसम्बर में, बम्बई में एक उर्दू-कन्वेंशन बुलाई गई थी, जिसके सूत्रधार, डॉ. मुल्कराज आनंद. कृष्ण चंदर, सज्जाद जहीर, राजेंद्र सिंह बेदी और अली सरदार जाफ़री जैसे प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक थे. मैं उस समय बंबई में नहीं था, सो मुझे इस बात की ज़्यादा जानकारी नहीं है कि कन्वेंशन में क्या कुछ हुआ. लेकिन जब मैं वापस आया तो यह सुनकर बेहद हैरानी हुई कि हिन्दी का एक भी प्रगतिशील लेखक इस कन्वेंशन में शामिल नहीं हुआ था. ऐसे लगा, जैसे हिन्दी-उर्दू के सवाल पर प्रगतिशील लेखक संघ का, अन्दर-ही-अन्दर, उसी प्रकार बँटवारा हो चुका है, जैसे हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर हिन्दुस्तान का बँटवारा हो चुका है. मुझे बहुत गहरी निराशा हुई.
साथ ही, इस बात पर सख़्त हैरानी भी हुई कि कन्वेंशन की प्रौढ़ता बनाने के लिए सिक्ख युवकों का एक काफी बड़ा जत्था भी बंबई आया हुआ था, हालांकि हर कोई इस बात को जानता है कि उर्दू वाले कल तक उर्दू को ही पंजाब की भाषा मानते थे, और पंजाबी की उपभाषा का दर्जा देते थे. अनायास ही मेरे मन में एक मलिन-सा संशय उठा कि कहीँ उर्दू को अल्पसख्यंकों की भाषा क़रार देकर उसकी रक्षा के लिए अल्पसंख्यक जातियों को तो नहीं उकसाया जा रहा. कहीं उर्दू की रक्षा करने के लिए पंजाबी को केवल सिक्खों को भाषा तो नहीं बनना पड़ रहा? मन में यह घटिया विचार उठने पर मैंने ख़ुद को फटकारा. बेशक, पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में इस समय सिक्ख लेखक ही अधिक संख्या में हैं, लेकिन पंजाबी को सिक्खों की भाषा मानने का दावा कभी किसी ने नहीं किया. फिर, देश के इतने बड़े प्रगतिशील, मार्क्सवादी विद्वानों से कभी सपने में भी आशा नहीं की जा सकती कि ये भाषा की समस्या को साम्प्रदायिक राजनीति से जोड़ेंगे. लेकिन फिर भी रह-रह कर चिन्ता घेर लेती थी. एक बार पहले मेरा वतन पंजाब साम्प्रदायिक राजनीति की छुरी के नीचे अपना सिर दे चुका था और लाखों लोगों को व्यर्थ में क़ुर्बान होना पड़ा था. कहीँ क़िस्मत एक और बरबादी की शुरूआत तो नहीं कर रही, और यह सोचकर मीठी नींद लेते रहे थे कि ‘ऐसे भला कैसे हो सकता है?’
बाद में, नयी कहानियां में अमृतराय के दो सम्पादकीय लेख छपे. उसी पत्रिका में यशपाल, अमृतलाल नागर और नरेंद्र शर्मा आदि द्वारा उर्दू-कन्वेंशन सम्बन्धी दिए गए वक्तव्यों को पढ़कर मेरी चिन्ता और बढ़ी. फिर उपलब्धि नामक पत्रिका का एक पूरा अंक इस कन्वेंशन के लिए अर्पित किया गया देखा, जिसमें डा.धर्मवीर और अन्य कई लेखकों के विचार पढ़ने को मिले. धर्मयुग में प्रकाशित टीका-टिप्पणियाँ भी देखीं. मुझे लगा कि मानसिक अशान्ति केवल मेरे तक ही सीमित नहीं थी.
और आज यही मानसिक अशान्ति मुझे मजबूर कर रही है कि आपके सामने अपना दिल खोलूँ, अपने जीवन के कुछ अनुभव और विचार पेश करूं. मैं जानता हूं कि आप देश की भलाई, एकता और प्रगति के इच्छुक हैं, और आशा करता हूं कि जो कुछ अच्छा-बुरा मैं कहूंगा, उसे पूरी सद्भावना से परखेंगे. अगर मेरे मुँह ने कोई बुरी या नाजायज़ बात भी निकल जाए, तो मुझे अपना भाई या साथी समझकर माफ़ कर देंगे.
अब मैं अपनी बात पर आऊं,
भाषा सम्बन्धी अनुभव
मैं जब शांतिनिकेतन में था, तो गुरुदेव टैगोर मुझे बार-बार कहा करते थे, ‘तुम पंजाबी हो, पंजाबी में क्यों नहीं लिखते. तुम्हारा उद्देश्य होना चाहिए कि अपने प्रांत में जाकर वही कुछ करो, जो हम यहां कर रहे हैं.’
मैंने जवाब में कहा, हिन्दी हमारे देश की भाषा है. हिन्दी में लिखकर मैं देश भर के पाठकों तक पहुंच सकता हूँ.
वे हंस देते, और कहते, ‘मैं तो केवल एक प्रांत की भाषा में ही लिखता हूँ, लेकिन मेरी रचनाओं को सारा भारत ही नहीं, सारा संसार पढ़ता है. पाठकों की संख्या भाषा पर निर्भर नहीं करती.’
मैं उनकी बातें एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता. बचपन से ही मेरे मन में यह धारणा पक्की हो चुकी थी कि हिन्दी पंजाबी के मुक़ाबले कहीं ऊंची और सभ्य भाषा है. वह एक प्रांत की नहीं, बल्कि सारे देश की राष्ट्रीय भाषा है (उन दिनों देश सम्बन्धी मेरा ज्ञान उत्तरी भारत तक ही सीमित था).
एक दिन गुरुदेव ने जब फिर वही बात छेड़ी तो मैंने चिढ़कर कहा, ‘पता नहीं क्यों, आप मुझे यहां से निकालने पर तुले हुए हैं. मेरी कहानियां हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में छप रही हैं. पढ़ाने का काम भी मैं चाव से करता हूं. अगर यक़ीन न हो तो मेरे विद्यार्थियों से पूछ लीजिए. जिस प्रेरणादायक वातावरण की मुझे ज़रूरत थी, वह मुझे प्राप्त है. आख़िर मैं यहाँ से क्यों चला जाऊं?’
उन्होंने कहा, ‘विश्व भारती का आदर्श है कि साहित्यकार और कलाकार यहाँ से प्रेरणा लेकर अपने-अपने प्रांतों में जाएं और अपनी भाषाओं और संस्कृतियों का विकास करें तभी देश की सभ्यता और संस्कृति का भंडार भरपूर होगा.’
‘आपको पंजाबी भाषा और संस्कृति के बारे में ग़लतफ़हमी है,’ मैंने कहा, ‘हिन्दुस्तान से अलग कोई पंजाबी संस्कृति नहीं है. पंजाबी भाषा भी वास्तव में हिन्दी की एक उपभाषा है. उसमें सिक्ख-धर्मग्रंथों के अलावा और कोई साहित्य नहीं है.’
गुरुदेव चिढ़ गए. कहने लगे, ‘जिस भाषा में नानक जैसे महान कवि ने लिखा है, तुम कहते हो उसमें कोई साहित्य नहीं है.’
और जब मैंने अपने जीवन ये पहली बार उनके मुख से गुरु नानक की ये पक्तियाँ सुनी:
गगन में थाल रवि चंद दीपक बने
तारक मंडल जनक मोती
धूप मलयानलो पवन चंवरो करे
सगल वनराय फूलंत जोती ।…
और अगर मुझे याद धोखा नहीं देती, तो गुरुदेव ने साथ में यह भी कहा था, ’कबीर की वाणी का अनुवाद मैंने बंगाली ने किया है, लेकिन नानक की वाणी का अनुवाद का साहस नहीं हुआ. मुझे डर था कि मैं उनके साथ इंसाफ नहीं कर सकूंगा.’
उसी शाम आचार्य क्षितिमोहन सेन के साथ नंगे पाँवों लम्बी सैर पर जाने का मौका मिला, जो भक्तिकाल सम्बन्धी सर्वोच्च खोजी और विद्वान माने जाते हैं. जब उनसे गुरुदेव के साथ हुई बातचीत का ज़िक्र छिड़ा, तो अचानक उनके मुँह से निकला, ‘पराई भाषा में लिखने वाला लेखक वेश्या के समान है. वेश्या धन-दौलत, मशहूरी और ऐशइशरत भरा घरबार सब कुछ प्राप्त कर सकती है, लेकिन एक गृहिणी नहीं कहला सकती.’
मैं मन ही मन बहुत खीझा. बंगाली लोग प्रांतीय संकीर्णता के लिए प्रसिद्ध थे. लेकिन टैगोर और क्षितिमोहन जैसे व्यक्ति भी उसका शिकार होंगे, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.
गाँधी जी के विचार
फिर मुझे एक और धक्का लगा. शांतिनिकेतन से मुझे कुछ समय के लिए ’बुनियादी तालीम’ संस्था की पुस्तकें अनुवाद करने के लिए सेवाग्राम जाना पड़ा. वहाँ गाँधी जी को निकट से देखने का मौक़ा मिला. और यह देखकर हैरानी हुई कि वे अपना अधिकांश लेखन-कार्य गुजराती में करते थे. गाँधी जी पर मैं प्रांतीय मनोवृत्ति का दोष कैसे लगा सकता था, जबकि वे हमारी राष्ट्रीय चेतना के जन्मदाता थे? राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी-हिन्दुस्तानी’ सबसे बड़ा प्रकाश-केंद्र भी तो वही थे. फिर, वे राष्ट्रभाषा को छोड़कर अपनी प्रांतीय भाषा में क्यों लिखते थे?
इस बारे में एक दिन मैं उनसे पूछ ही बैठा. मेरा सवाल सुनकर ये भोंचक्के रह गए, जैसे सोचने लगे हों कि कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति ऐसा बचकाना सवाल कैसे पूछ सकता है. आख़िर उन्होंने कहा, मातृभाषा तो मां के दूध जैसी मीठी होती है. राष्ट्रभाषा का मनोरथ प्रांतीय भाषाओं को ख़त्म करना नहीं, बल्कि उनकी रक्षा करना है, उन्हें एक-दूसरे के निकट लाना और प्रेमसूत्र में पिरोना है.
मैं फिर भी न समझ सका. मेरे दिमाग़ में कई सवाल उठ रहे थे. गाँधी जी हिन्दी-हिन्दुस्तानी को एक सीधी-सादी और आम बोलचाल की भाषा तक सीमित रखना चाहते थे, जिसमें न तो मोटे-मोटे फ़ारसी शब्दों का प्रयोग हो, न ही बड़े-बड़े संस्कृत शब्दों का. इसके लिए वे लिपियां भी दो चाहते थे –देवनागरी और फ़ारसी. ये दोनों बातें ही मुझे अव्यावहारिक लगती थीं. हिन्दी को किस हद तक, कब तक और क्यों केवल आम बोलचाल की भाषा रखा जाएगा? उसके विकास पर क्यों बंधन लगाए जाएंगे, जबकि वे बंधन प्रांतीय भाषाओँ पर नहीं लगाए जाते. राष्ट्रभाषा को तो प्रांतीय भाषाओं की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध बनाना चाहिए. और एक भाषा के लिए दो लिपियों को परवान करना कहाँ की अक्लमंदी है?
मुझे याद है, इस समस्या के बारे में उन दिनों मेरे मन में निरन्तर उथल-पुथल मची रहती थी. मैं मौक़ा ढूँढता रहता कि कब गांधी जी के साथ दोबारा इस बारे में बातचीत करूँ. लेकिन वह मौक़ा न मिला. दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था, और गाँधी जी राजनीतिक मामलों में बहुत ज्यादा उलझ गए थे.
एक दिन उन्हें मिलने के लिए ऑल इंडिया रेडियो के अंग्रेज़ डायरेक्टर-जनरल, मिस्टर लाइनल फील्डन, वहां आए. वे हिन्दुस्तान से इस्तीफ़ा देकर लंदन के बी.बी.सी. में हिन्दुस्तानी विभाग खोलने के लिए जा रहे थे. वे अपने तुरन्त और हंगामी फ़ैसलों के लिए अद्वितीय थे. वे आए थे गाँधी जी को अलविदा कहने, लेकिन जाते समय मुझे अपने साथ रेडियो अनाउन्सर के रूप में लंदन ले गए.
लंदन में
उस ज़माने में, रेडियो पर उर्दू का वैसा ही बोलबाला था, जैसा आज हिन्दी का है. शुरू से अन्त तक सभी काम उर्दू लिपि और उर्दू भाषा में ही किए जाते थे. और मैं इन दोनों में लगभग कोरा था. हिन्दुस्तान से चलने से पहले कई बार दिल में आया था कि फील्डन से इस बारे में खुलकर बात करूँ, लेकिन लंदन और युद्ध को निकट से देखने का चाव मुझे रोकता रहा.
दो-तीन अनाउन्सर वहां पहले से पहुंच चुके थे. सभी उर्दू के माहिर उस्ताद. वे हिन्दी न जानते थे, न ही उसे गिनती में लाते थे. उर्दू से अन्जान होने के अलावा मेरी एक और कमज़ोरी यह थी कि माइक्रोफ़ोन पर बोलने का तजुर्बा भी मुझे बहुत कम था. फिर, बोलने का लहज़ा इतना ज्यादा पंजाबी कि अपनी पहली रिकार्डिंग सुनकर मेरे अपने कान फटने को आ गए थे. तब मेरा सारा अहंकार मिट्टी में मिल गया कि फील्डन मुझे सेवाग्राम से विशेष रूप से अपने साथ लंदन लाए थे. आख़िर मैं भी उनकी नज़र में खटकने लगा. फिर तो मुझे साफ़ दिखाई देने लगा कि वहाँ मेरा ज्यादा देर टिकना सम्भव नहीं था.
मेरा मन ग़ुस्से आर ग्लानि से भर गया. एक तो, मैंने ख़ुद इस नौकरी की मांग नहीं की थी, बल्कि सारे आश्रमवासियों को नाराज़ और दुखी करके आया था. दूसरे, एक साहित्यकार के तौर पर मेरा कुछ महत्व था. मैं हिन्दी के पहली श्रेणी के कहानीकारों में गिना जाता था. मेरी कई रचनाएं उर्दू में अनूदित होकर अदबे लतीफ़ जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छप चुकी थीं. इस सब कुछ का क्या कोई महत्त्व नहीं था? क्या हिन्दी भाषा के अपने अधिकार नहीं थे? जिस भाषा में प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, यशपाल, बच्चन, सुमित्रानंदन पंत जैसे महान साहित्यकारों ने लिखा हो, उसे इस प्रकार अवहेलना की दृष्टि से देखना क्या पहले दर्जे का अन्याय नहीं था? रहा सवाल पंजाबी लहज़े का. उसे सुधारते कौन सी देर लगती है. किसी की थोड़ी मदद और अभ्यास ही की तो ज़रूरत है.
यह बात मुझे दिन-प्रतिदिन स्पष्ट हो रही थी कि अगर मैंने अपने बचाव के लिए ख़ुद कोई कोशिश न की, तो बिस्तर गोल होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. मैं सारी-सारी रात बिस्तर पर करवटें बदलता सोचता रहता. आख़िर क्या करूँ? क्यों न बीबीसी के डायरेक्टर-जनरल को मिलकर अपना दुख उनके सामने रखूँ और इस घोर अन्याय का पर्दाफाश करूँ. मैं लाइनल फील्डन को मुंह की खिला सकता था. भारत के हिन्दी समर्थकों को उकसाकर उनके लिए अच्छा ख़ासा सिरदर्द पैदा कर सकता था.
लेकिन फिर, मन में दूसरी तरह के विचार मंडराने लगते. मैं गाँधी जी के चरणों से उठकर अंग्रेज़ों के क़दमों में गिरा था. वह कोई मामूली गिरावट नहीं धी और अब शिकायती टट्टू बनना, अपने घर के लड़ाई-झगड़ों को दुश्मन के सामने नंगा करना, उससे न्याय की मांग करना, क्या यह शर्म से डूब मरने वाली बात नहीं होगी. दूसरों की इज़्ज़त उछालते हुए क्या मेरी इज्ज़त रह जाएगी? इससे देश का अपमान न होगा? अंग्रेज़ अफ़सरों को मुंह मागी मुराद नहीं मिल जाएगी? हमारी अनबन का वे पूरा लाभ नहीं उठाएँगे? फिर, लाइनल फील्डन आम अंग्रेज़ अफ़सरों जैसे नहीं थे. वे गाँधी के भक्त थे, और हिन्दुस्तान की आज़ादी के सच्चे चाहवान. वे वाइसराय तक को नाराज़ करके इस ख़याल से मुझे अपने साथ ले गए थे कि मेरा व्यक्तित्व आम जी-हुजूरी करने वाले सरकारी कर्मचारियों से कुछ अलग होगा. क्या ऐसे व्यक्ति के विश्वास को तोड़ना उचित होगा?
एक दिन में कैंटीन में कॉफ़ी पी रहे अपने साथियों के सामने फूट पड़ा, ‘हिन्दी के हक़ मनवाने का बीड़ा उठाकर मैं भी आप लोगों को उतना ही परेशान कर सकता हूँ जितना इस समय आप मुझे कर रहे हैं. नतीजा हम दोनों के लिए बुरा होगा. फ़ायदा होगा तो सिर्फ़ अंग्रेज़ों का. हमारी कौमी इज्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी. मैं आपके आगे एक प्रार्थना करता हूँ. मगर आप लोग मेरी बेकद्री करना छोड़ दें, बल्कि मेरी मदद करें, तो मैं दिन-रात मेहनत करके थोड़े-से अरसे में ही उर्दू सीख लूँगा. उर्दू मैंने सातवीं जमात तक पढ़ी हुई भी है.’
इस सुझाव का मेरे साथियों पर बहुत अच्छा असर पड़ा. विदेश में प्रत्येक व्यक्ति की राष्ट्रीय भावना जाग उठती है. मेरे साथियों ने महसूस किया कि मैंने अच्छी और सही बात की थी. उसी दिन से उनके साथ मेरे सम्बन्ध अच्छे बन गए. सबने दिल खोलकर मेरी मदद करनी शुरू कर दी. दो-तीन महीनों में ही उर्दू में अच्छी तरह अपना काम करने लगा. पूरे चार साल मैं वहाँ रहा. इस अरसे में कभी एक बार भी अंग्रेज़ हमें एक-दूसरे के प्रति न भड़का सके. हमारा आपसी प्यार और भाईचारा दूसरे विभागों कं लिए भी एक अच्छा उदाहरण बन गया था. वह समय बहुत अच्छा बीत गया.
उर्दू साहित्य का अध्ययन
उर्दू साहित्य का अध्ययन करने से मेरी आंखें खुल गईं. ऐसे लगा, जैसे कोई खोया हुआ ख़जाना मिल गया हो. मन मेँ समाये सभी बैर-विरोध और गलत धारणाएं ख़त्म हो गईं. कितना विशाल, कितना गौरववान था उर्दू साहित्य. ग़ालिब की ग़ज़लें पढ़ते हुए ऐसे लगता है, जैसे मेरी आत्मा पर कोई नया सूर्योदय हो रहा हो. इसी प्रकार अद्वितीय और अविस्मरणीय आनंद कॉलेज के ज़माने में शैली की रचना प्रोमीथियस अनबाउंड और शेक्सपीयर का नाटक हेनरी फ़ोर्थ– भाग पहला पढ़कर आया था. ऐसी अनुभूतियां जीवन की पूंजी बन जाती हैं.




मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

संसदीय राजभाषा निरीक्षण समिति -ध्यान देने योग्य बातें



*संसदीय राजभाषा समिति निरीक्षण : राजभाषा अधिकारी मित्रों के विशेष ध्यानार्थ*

• निरीक्षण संबंधी सूचना प्राप्त होते ही कार्यालय प्रधान के ध्यान में लाते हुए उच्च नियंत्रक कार्यालय और प्रधान कार्यालय को तत्काल अवगत कराना होगा।

• निरीक्षणाधीन शाखा/कार्यालय के स्टाफ़ सदस्यों की बैठक बुलाकर निरीक्षण संबंधी सूचना प्रणाली से अवगत कराकर, अपेक्षित सूचना प्रस्तुत करने हेतु उन्हें लिखित पत्र जारी करने होंगे।

• सामान्य व्यवस्था संबंधी ज़िम्मा राजभाषा अधिकारी न लें। कर्तव्यों का आबंटन हो।

• राजभाषा अधिकारी का ध्यान प्रश्नावली की सही/स्पष्ट प्रस्तुति, आधारभूत सामग्री का संकलन, अभिलेखों का अद्यतन, प्रदर्शनी सामग्री की तैयारी इत्यादि पर हो।

• संसदीय राजभाषा समिति कार्यालय को भरी गई प्रश्नावली प्रस्तुत करने के पूर्व प्रधान कार्यालय का अनुमोदन प्राप्त करना अनिवार्य है।

• स्वतः निर्णय न लें। निरीक्षण संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी का सक्षम प्राधिकारी से लिखित अनुमोदन अवश्य प्राप्त करना होगा।
संयोजक कार्यालय और प्रधान कार्यालय से प्राप्त मार्गदर्शन एवं निर्देशों पर विशेष ध्यान देना होगा।

• निरीक्षण संबंधी संयोजक कार्यालय और ज़रूरतानुसार संसदीय राजभाषा समिति कार्यालय के समन्वयक अधिकारी तथा अपने प्रधान कार्यालय से संपर्क में रहना होगा।

• प्रश्नावली भरने में त्रुटि न हो।जोड-घट, समरूप प्रश्नों के लिए अलग अलग उत्तर,  अंग्रेज़ी-हिन्दी पाठ में समानता न होना, अंग्रेज़ी की तुलना में हिंदी फांट का आकार कम होना, …. चिह्न के बजाए रु. लिखना इत्यादि।

• ऊपरी दिखावट न हो। उपलब्ध अभिलेखों एवं कृत कार्रवाई के अनुसार जानकारी प्रस्तुत करनी होगी।

• गत निरीक्षण के आंकड़े कोष्ठक में देने होंगे।

• समाधान की पंक्तियाँ स्पष्ट और शालीनता पूर्ण हों।(जी हाँ, जी नहीं…..)

• ‘प्रयासरत, प्रयत्नशील, कार्य प्रगति पर’  इत्यादि शब्दों/वाक्यों का प्रयोग न करते हुए वस्तुस्थिति से संक्षेप में अवगत कराना होगा।

• देखना होगा कि सभी अनुबंध स्पष्टत: तैयार कर संलग्न किए गए हैं।

• कार्यालय प्रमुख को सभी प्रश्नों और उत्तरों से स्पष्टत: अवगत कराना होगा।

• संभाव्य प्रश्नों के उत्तर तैयार कर उनसे भी कार्यालय प्रमुख को अवगत कराना होगा। (हिंदी ज्ञान की स्थिति, स्टाफ़ सदस्यों द्वारा कृत हिंदी कार्य की प्रतिशतता, प्रवीणता आदेश, राजभाषा कार्यान्वयन समिति के सदस्यों द्वारा हिन्दी में कार्य, हिंदी में डिक्टेशन, मूल पत्राचार में हिंदी, अंग्रेज़ी में प्राप्त पत्रों का उत्तर हिंदी में दिया जाना, शीर्षस्थ बैठकों में हिंदी का प्रयोग, हिंदी सॉफ़्टवेयर,हिन्दी टंकण कार्य की प्रतिशतता, हिंदी पुस्तकालय पर कृत व्यय की प्रतिशतता, हिंदी प्रतियोगिता पुरस्कार राशि, सेवा अभिलेखों में प्रविष्टियाँ, प्रचार सामग्री एवं विज्ञापनों में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं पर कृत व्यय की प्रतिशतता पर अधिक ध्यान दिया जाता है।)

• राजभाषा प्रदर्शनी की व्यवस्था, पावर पाइंट प्रस्तुति (पूर्वानुमति से) पत्रिकाओं/बुलेटिनों/पुस्तकों का विमोचन (पूर्वानुमति से) पर ध्यान देना होगा। 

• आवश्यक समर्थन सामग्री के अभिलेख साथ रखने होंगे। यथा विज्ञापन एवं प्रचार पर कृत व्यय संबंधी पत्र की प्रति, धारा3(3)के पिरलेख, तिमाही रिपोर्ट, बैठकों के कार्यवृत्त, रोस्टर, अनुदेश पुस्तिकाएँ, प्रक्रिया साहित्य, प्रमुख प्रपत्र, प्रेस विज्ञप्ति इत्यादि।
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(साभार- डॉ वी व्यंकटेश्वर राव)

गूगल कृत्रिम बुद्धि

  शीर्षक: भाषा संबंधित बार्ड एआई की उपयोगिता परिचय: भाषा मानव संचार का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। यह हमें विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने, ...