स्वतंत्र भारत के प्रथम हिंदी अधिकारी जिन्हें देश के भूतपूर्व प्रधान मंत्री पंडित नेहरू जी ने नियुक्त किया था।सही मायने में हिंदी कैडर के संस्थापक अधिकारी।सादर नमन। हरिवंश राय बच्चन जी ने दशद्वार से सोपान तक आत्म चरित्र में सरकारी कार्यालय में हिंदी की स्थिति का वर्णन किया है।
अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा
बच्चन जी दिल्ली में विदेश मंत्रालय में अनुवाद करने का कार्य करते थे। वे अनुवाद की नीति के बारे में कहते हैं,
‘भाषा सरल-सुबोध होगी
पर बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं
लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को
सही भी होना है।
और मेरा दावा है कि लिखित हिन्दी अंग्रेजी के ऊंचे से ऊंचे स्तर को छूने की क्षमता आज भी रखती है।’
वे भाषा के प्रथम आयोग के परिणामो के बारे में दुख प्रगट करते हुऐ कहते हैं कि,
‘सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था कि १५ वर्ष तक यानी १९६५ तक अंग्रेजी की जगह पर हिंदी लाना न आवश्यक है, न संभव; सिद्धान्तत: हिंदी राजभाषा मानी जायगी, अंग्रेजी सहचरी भाषा; (व्यवहार में उसके विपरीत: अंग्रेजी राजभाषा, हिंदी सहचरी – अधिक उपयुक्त होगा कहना ‘अनुचरी’)। सरकारी प्रयास हिंदी के विभिन्न पक्षों को विकसित करने का होगा – प्रयोग करने का नहीं – जिसमें कितने ही १५ वर्ष लग सकते हैं। मेरी समझ में प्रयोग से विकास के सिद्धान्त की उपेक्षा कर बड़ी भारी गलती की गई; अंततोगत्वा जिसका परिणाम यह होना है कि हिंदी तैयारी ही करती रहेगी और प्रयोग में शायद ही कभी आए – “डासत ही सब निशा बीत गई, कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो”।’
मुझे बच्चन जी की यह बात ठीक लगती है। हिन्दी की दुर्दशा का यह भी एक कारण है।