साथियो...
पहले एक कोशिश की थी सभी को साथ लेकर चलने की, परंतु गर्व के साथ कहना पड़ रहा है कि उस कोशिश के परिणामस्वरुप पूरे भारतवर्ष से मात्र 7 साथियों का विवरण मेरे मेल में आया था।..
हम लोग जो हिंदी अनुवादक, हिंदी अधिकारी टाइप के लोग हैं सारी जिंदगी इसी दुविधा में नौकरी कर रिटायर होते हैं कि हम हैं क्या....
मैं कुछ कोशिश कर रहा हूं....
एक वर्ग तो वह है जो इस नौकरी में अपने पद, विभाग, अंधों में काना राजा अथवा व्यक्तिगत संपर्कों के बल पर वेतन से ज्यादा कार्यशालाओँ एवं व्याख्यानों से कमा लेता है और विल्कुल आयकर से मुक्त...वह इस नौकरी में बहुत मस्त है...क्योंकि उसकी जिंदगी सैट है और अच्छी आमदनी है...ऐसे अनेक मित्र हैं जिनका धंधा बहुत अच्छा चल रहा है...इसलिए उन्हें सरकार से न प्रमोशन चाहिए, न सम्मान, न अधिकार, न कैडर और न उसे नियमों की कोई जानकारी है और न वह करना चाहता..और न किसी संगठन अथवा संस्था का सदस्य बनना चाहता...। वह हिंदी की इस यथास्थिति को भी बनाए रखने का प्रबल समर्थक है क्योंकि यह उसके धंधे के लिए उपयुक्त है। मैं और आप ऐसे अनेकों को जानते हैं....।
दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी का कवि, लेखक, साहित्यकार बनने की प्रक्रिया में शिद्दत से लगा है, राजभाषा विभाग में उसके पास एक दो अनुवादक अथवा स्टाफ है जो सरकारी चिट्ठियों का जवाब, कार्यशालाएं, रिपोर्ट आदि कर्मकांडों का निर्वाह करता रहता है..और उसकी नौकरी चलती रहती है....उसे भी कोई दिक्कत नहीं है और् अगर उसकी नौकरी भी अपने शहर में है तो फिर तो वह जीवन का स्वर्ग मानता है...कवि सम्मेलन आदि के निमंत्रण आते रहते हैं...शॉल पुष्पमालाएं बुके घर लाकर वह ऐसे सोचता है जैसे जंगल से चीते की खाल लेके आया है.. .पर पत्नी पूछती है कि नकद कितना मिला.....।
तीसरा वर्ग वह है जो एम ए अंग्रेजी, हिंदी, पीएच डी आदि पढ़ के राजभाषा में आया है और काफी समय भी हो गया है परंतु उसे आज भी समझ नहीं आया है कि वह इस नौकरी में कर क्या रहा है और उसके आगे कौंन सा रास्ता है..... अन्य सेवाओं में जाने की कोशिश में लगा रहता है.....वह बड़े दिल से पहले एवं दूसरे वर्ग में घुसने की कोशिश मे लगा रहता है...और उसे भी संगठन एवं संघर्ष से कुछ खास मतलब नहीं है।
चौथा वर्ग वह है जो हिंदी नीतियों के अति उत्साह में सिस्टम से पंगे लेता रहता है और मुंह की खाता है, जलालत झेलता है और उपेक्षित रहता है अपने कार्यालय में....सब उससे पूछते हैं तुम्हें काम ही क्या है.....और वास्तव में काम के नाम पर वह यह दिखा ही नहीं सकता कि यह परिणाम है....क्योंकि हिंदी में सरकारी काम हो ..यह वह करा नहीं सकता...लिहाजा वह इल्ले पिल्ले टाइप के कामों में ही फिर लगा रह जाता है.. बोर्ड हिंदी के कर लो .. मुहर बनवालो..लैटर हैड बनालो....यूनीकोड करलो.. गूगल डॉक्स कर लो....आदि आदि......उसकी हालत खूबसूरत पत्नी के अशक्त पति की सी होती है कि सारी दुनिया उसे अपनी दुश्मन लगती है..पर वह किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता... सारी दुनिया उसके सामने ही उसकी पत्नी से भाभी कह कर मजाक करती है...और होली खेलती है.....याद करिए प्रेमचंद के उपन्यासों में गरीब की जोरु........इस वर्ग के सामने ही हिंदी की धज्जियां उड़ती रहती हैं पर यह कुछ नहीं कह पाया न कर पाता है..आखिर एक छाते के बलबूते आंधी तूफान से लड़ने का हौसला कहां से लाए....लिहाजा सारी जिंदगी छाते को बचाने की ही जद्दोजहत लगी रहती है..कि बस किसी तरह इज्जत बची रहे.......इस वर्ग की कोई सहायता राजभाषा विभाग का भारी भरकम अमला भी नहीं कर पाता है.....। और सारी संवैधानिक समितियां दुर्वासा की तरह मान सम्मान उपहार लेकर उसके विरोधियों के कंधे पर हाथ रखकर पुचकार कर चली जाती हैं....अगले दिन से वह और अपमान झेलता है...क्या कर लिया...आ गए न औकात में...।
पांचवा वर्ग वह है जो किसी न किसी सहारे से यहां पहुंचा है और नौकरी पाया है...और उसे बस नौकरी चाहिए थी ...आगे जो सरकार करे- उसे स्वीकार है...यह परमानंद और परमहंस प्रजाति का जीव जीवन में सब आनंद लेता है, न उसे कोई अफसोस न कोई अपेक्षा...।
छठा वर्ग वह है जिसे घर से निकलकर कार्यालय की दुनिया में बहुत अच्छा लगता है, पति/पत्नी, सास ननद घर बाल बच्चों की चखचख से अलग..एक आनंद की दुनिया है.. फेस बुक पर फोटो डालने के लिए नैट आफिस में मिल जाता है..इसके आगे उन्हें कुछ नहीं चाहिए...कार्यक्रमों का संचालन करना और अगले दिन अखवार में फोटो और नाम देखने का सुख जीवनीय सुखों के तुंग शिखर का सा आनंद देते हैं।
सातवां वर्ग ऐसा भी है जो कि यह सब लिख के अपनी योग्यता महानता विद्वता सिद्ध करने का सफल प्रयास करता है और सफल हो भी जाता है। न वह पूरा हिंदी का आदमी है न अंग्रेजी का न कवि है न लेखक है न बुरा आदमी है न भला आदमी है... किसी से लड़ने की हिम्मत उसमें उसकी बेसिक शराफत मिलमा कायरता पैदा नहीं होने देती और उसे भलमनसाहत का बहुत भयंकर प्रेत सदैव अपने शिकंजे में कसे रहता है.....वह सोचता है और गदगद रहता है कि वह बहुत भला आदमी है..... फेस बुक पर उसे कुछ लाइक या कमेंट मिल जाते हैं। बुरा बनने को, अहंकारी अथवा अपनी ठसक दिखाने के अवसर उसके पास इतने भी नहीं होते जितने कि एलटीसी डील करने वाले बाबू के होते हैं...यह खरगोश और सियार के बीच का जीव किसी का नुकसान करने की सोच भी नहीं सकता और न उसके पास ऐसे कोई मौके हैं कि वह किसी का बुरा सोचे तो कर दे .....करना भी चाहे तो उसके वही भलमनसाहतीय प्लास्टिक के अजर अमर कीटाणु उसे इतना नीचे गिरने नहीं देते कि वह किसी का अहित करे....इस चक्कर में उसकी हालत कभी राहुल गांधी, कभी स्वामी, कभी रामदेव, कभी लालू कभी आजम खां, कभी जयललिता कभी ममता, कभी मोदी, कभी जेटली, कभी शत्रुघ्न सिन्हा, कभी कांग्रेस कभी भाजपा जैसी बदलती रहती है.... आडवाड़ी की तरह नराकास के सदस्य सचिव के रुप में यत्र तत्र सर्वत्र पुजता भी रहता है। विदवान जिसे विद्वान, साहित्यकार जिसे साहित्यकार, कवि जिसे कवि और अन्य वर्ग के लोग उसे उसकी हरकतों तथा गतिविधियों से अपने ही वर्ग का अभिन्न अंग मानते हैं....परंतु यह कुछ भी संपूर्ण नहीं होता...सब कुछ थोड़ा-थोड़ा होता है...जैसे कि एक ही रात में किसी को 8 शादियों का निमंत्रण होता है और वह सब जगह जाता है...अब बताएं कि उसने भोजन कहां किया...पर पेट भर जाता है.....और इसी भ्रमगंगा में गुड़ुप-गुड़ुप करते-करते जीवन सुविधापूर्वक चलने लगता है...न तेज धार में बहने की इच्छा रहती है और न किनारे पर पड़े रहने की... जब धूप लगी तो एक डुबकी मार आए....। इस प्रजाति के लोगों को सभी वर्ग आकर्षित करते हैं और ये सारे जीवन सभी वर्गों के टैंटों में चौधरी अजीत सिंह या सुनील शास्त्री जी की तरह आते जाते रहते हैं। इसी वर्ग में से कुछ लोग राजनारायण, सुव्रामन्यम स्वामी या राम जेठमलानी की भूमिका भी अख्तियार कर लेते हैं....चिढाऊ बातें करना..सुई चुभोना..आदि विशिष्ट अवगुण इनमें पाए जाते हैं.. पर इन्हें अपना सगा कोई नहीं मानता...और ये अपने स्वभाव वश किसी के पालतू हो भी नहीं सकते...जो कि सिस्टम वालों को स्वीकार नहीं होता...आखिर चमचागीरी तो सबको अच्छी लगती है ..और एक सीमा से ज्यादा ये कर नहीं सकते.....। सिस्टम चलाने वाले शक्ति एवं अर्थ संपन्न लोग अक्सर इनसे दूर रहते हैं और इन्हें मुंह नहीं लगाते..पर काम के टाइम पर इन्हें जिम्मेदारी सौंप कर शादी में विधवा बड़ी बुआ की सी जिम्मेदारी सौंप देते हैं जिसे ये प्राण पण से निभाते हैं... और फिर सिस्टम अपने चाटुकारों में घिर जाता है और इनके....पिछवाड़े पर लात मार दी जाती है.......। इस सिस्टम में इनमें थोड़ा सा ईमान बचा होता है और सिस्टम की मांग पर यह आंकड़ों में फेर बदल नहीं करते... जो हो सो हो..पर होता कुछ नहीं है... मंत्रालय से एक सत्यनारायण की कथा के सारांश का सा पत्र सुझावात्मक आ जाता है....। पर फिर यही.. कोई नृप होइ हमें का हानि..का बाबा भारती.... दुर्वासा समितियों के मान-सम्मान सेवा में जी जान लगा के कागजी शेरों के प्रकोप से बचाने का उपकरण बन कर गर्व महसूस करता है ...कि कुछ बड़ों का हाथ पीठ पर फिर जाता है......और खड़ग सिंह अगली रात को फिर घोड़ा इनके सामने ही खोल के ले जाता है।
एक वर्ग आठवां है जो हिंदी की नौकरी में होता है परंतु उसे हिंदी के अलावा सब कुछ आता है और वह केटरिंग का, कार्यक्रमों के आयोजन का, व्यवस्थापन का , गैस्ट हाउस का, ट्रांसपोर्ट का विशेषज्ञ होता है...इसके पास समस्त चकल्लसी जानकारियों का जखीरा होता है.....इसे प्रमोशन सुविधाएं इत्यादि भी समय से मिलती हैं...यह कभी भी हिंदी की बात करता हुआ नहीं मिलता है.....परंतु सभी रिपोर्टें टाइम से जाती हैं ... और विल्कुल झूंठी... और क्षेत्रीय राष्ट्रीय पुरस्कारों से नाम रोशन करता है और बड़े साब की आंखों का पतंजलि काजल होता है.....यह हिंदी नहीं बोलता.अंग्रेजी बोलता है ..खाता है पीता है ओढता बिछाता है.....बल्कि इसे हिंदी की बात करने में शर्म आती है...हिंदी भाषी एवं हिंदी की नौकरी में होते हुए भी यह द हिन्दू पढ़ते हुए अपनी अंग्रेजी अच्छी करने में लगा रहता है और अंग्रेजी ही जीता है..इंगलिश ही पीता है..क्योंकि इनकी अपनी नौकरी सारी अंग्रेजों की ही होती है....। यह वर्ग अच्छा आयोजक होता है।
वीरवल की तरह शीर्ष पर रहने वाला एक नौवा रत्न है वह वर्ग जो हिंदी का नौकर नहीं है, राजभाषा नीति का ककहरा भी जिसे नहीं आता .. परंतु उसे हिंदी का अतिरिक्त चार्ज दिया गया है... वह प्रोफेसर है, वैज्ञानिक है....उच्च पदधारी प्रबंधक है....। वह देश विदेश में हिंदी के सम्मेलनों में शिरकत करता है और हिंदी को आगे बढ़ाते हुए खूब आगे जाता है...पर सरकार का काम हिंदी में हो ...इससे उसका कोई प्रयोजन नहीं है....। संस्थानों के, कार्यक्रमों के, सेमिनारों, संगोष्ठियों, समितियों के अध्यक्ष आदि बनना इस वर्ग में रहने की अंतिम सुखद परिणित होती है और सभी इन्हें ही अपने कार्यक्रमों में बुलाकर हिंदी की सेवा का स्वर्णिम प्रमाण पत्र पाने के लिए दामादी खातिर करते रहते हैं। हिंदी वालों के प्रस्तावों पर अनुमोदन अथवा टांग लगाना इसका कार्य होता है...।
दशम् अवतार है एक संस्था वर्ग का... जिसकी दुकान हिंदी कार्यशालाएं एवं सम्मेलन आयोजित करने से चल रही है और इस काम में पूरी की पूरी मंडली लगी हुई हैं...किन्ही माननीयों के पैड पर निरंतर भयादोहन भाषा में त्रिशूल छाप कर वे बरातियों से बसूली करते रहते हैं..... हिंदी और संविधान, संसद का सबसे धनाढ्य एवं शक्तिसंपन्न वर्ग यही है..इस संत कर्म में अनेक सेवारत एवं सेवानिवृत्त अधिकारियों का प्राण पण से सहयोग रहता है.....हिंदी सेवा में इस वर्ग में शामिल होना उच्च गर्व का भाव भर देता है और सबकी अंतिम इच्छा इस वर्ग में शामिल होने की और अगली पंक्तियों में विराजमान होने की रहती है...इनकी कुछ किताबें, कुछ ब्लाग, कुछ वेवसाइटें होती हैं.. जहां वे बहुत ही विश्वप्रसिद्ध पदवी पाए हुए होते हैं...। इन कार्यक्रमों से आज तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ परंतु कुछ प्रकोपों से बचने के लिए बरातियों को नामित करना और विज्ञापन देने का चक्र निरंतर चलता रहता है। कुछ पत्र पत्रिकाओं को सम्मानित करने के नाम पर ये लोमड़ीनुमा संस्थाएं कौए के मुंह का कौर गिरवाने में माहिर हैं।
एक वर्ग है जो टैक्नीकली हिंदी और कंप्यूटर को जोड़ने में लगा है और इसे हिंदी कार्मिकों की सेवा शर्तों तथा परिस्थितियों से कोई सरोकार नहीं है...और यह ईमानदारी से अपना कार्य कर रहा है...इसमें सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के लोग हैं.. सरकारी जो हैं वे कुछ कम असरकारी सिद्ध होते हैं और गैर सरकारी सर्वोच्च पदों से पुरस्कार प्रमाण पत्र पाकर संतुष्टि पाते हैं...और उनके निजी व्यवसाय बढ़ते हैं....निमंत्रण बढ़ते हैं.....मैं इस वर्ग के दोनों उपवर्गों का सम्मान करता हूं।
बात शुरु हुई थी...मन की उस खीज के साथ.. कि हम हिंदी वालों में संघर्ष का जज्बा क्यों नहीं हैं और हम सरकार से कुछ क्यों नहीं करा पाते हैं..न हमारे प्रमोशन हैं...न हिंदी में कहीं काम हो रहा है..न दासमलूका वंश के हरामखोरों की सी संतुष्टि है और न भगत सिंह की क्रांति ज्वाला....। आप को समझ में आए तो बताएं...मैं तो तीन पेज काले करके भी नहीं समझ पाया..कि हम लोग क्या हैं... हम सब थोड़ा थोड़ा सभी वर्गों में हैं......मैं अभी और दस बीस पेज बकवास कर सकता हूं पर नतीजा ढाक के तीन पात ही रहेगा...साढे तीन नहीं....।
जय हिंद जय हिंदी...
आप लोग भी अपने आप को और आस पास को देखिए और बताएं कि आप किस वर्ग में हैं...और भी कुछ नए वर्ग परिभाषित किए जा सकते हैं...यह बकवास परंपरा खुली हुई है...आप इसकी और श्रीवृद्धि कर सकते हैं। यह उपसंहार नहीं प्रस्तावना है, मत कहो आकाश में कोहरा घना है।
जय हिंद जय हिंदी।
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डॉ राजीव रावत
हिंदी अधिकारी
आई आई टी खरगपुर
राजभाषा हिंदी से जुडे कर्मियों का मानस। हिंदी प्रेमियों के लिए उपयुक्त जानकारी एवं संपर्क सूत्र।
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मंगलवार, 24 मई 2016
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