बुधवार, 10 जून 2020

''जन्म से पहले एक प्रार्थना''

''जन्म से पहले एक प्रार्थना''

क्या आप सुन रहे हो?
मैं अभी जन्मा नहीं हूँ

मुझे बचाओ
रक्तपिपासु पिशाचों से
चूहे से, नेवले से तथा
खूंखार दरिंदों से

मैं अभी तक जन्मा नहीं हूँ
मुझे बचा लो
मुझे डर है कि
यह मानव जाति
अपनी रहस्यमयी दुनिया में
मुझे कुचलकर खामोशी से मिटा देगी

मुझे गहरे नशे में डुबो कर
 झूठे सपनों से
मुझे बहकाएगी ।
अपने स्वार्थ की बलिवेदी पर
रक्तरंजित कर देगी ।

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
मुझे पानी में छपाछप करने दो
मुझे खुशी से उछलने दो 
माँ की दुब में बढ़ने दो 
पेड़ों को मुझसे बात करने दो
मेरे लिए आकाश को गीत गाने दो

पंछियों और सुबह की धूप को आने दो 
मेरे मन के भीतर रास्ता दिखाने ।

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
मुझे माफ़ करना
मेरे पाप इस दुनिया में
 खड़े हो जाएंगे
वे मेरे शब्द बनकर मेरे सामने बोलेंगे
वे वही सोचेंगे जो मेरे विचार होंगे
मेरे गद्दार विरोधी मेरे पीछे राजद्रोह  करेंगे मेरे पीठ पीछे वार करेंगे
वे मेरे ही हाथों से मेरा जीवन
 समाप्त करेंगे,
मेरे मृत्यु  समाधी  पर
उनका जीवन लहलहायेगा

मैं अभी जन्मा नहीं हूं
मुझे मेरे नाटक के अंक में
रिहर्सल  करने दो,
मुझे कोई संकेत मिलेगा, 
जब वह बूढें सयाने मुझे पढ़ाने लगेंगे
जब  सत्ता  मुझे सताने लगेगी
जब  कोई  उत्तुंग पहाड़  
मुझे भयाक्रांत करेगा,
जब प्रेमी मुझ पर हंसेंगे
रुपहले बादल मुझे मूर्ख बनाएंगे,
जब रेत की आंधी कयामत बरपाएगी
जब कोई याचक मेरा दान ठुकरायेगा
और मेरे बच्चे मुझे धिक्कारेंगे,

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
क्या आप सुन रहे हो?
मेरे पास उस आदमी को
मत आने देना
जो अपने आप को
शैतान या ईश्वर समझता है

मैं अभी जन्मा नहीं हूँ
मुझे शक्ति देना
जिससे मैं संघर्ष करूंगा,
जो मेरी मानवता को 
निष्क्रिय कर देना चाहता है
जो मुझे भयंकर पत्थर दिल 
मानव में ढालना चाहता है,
जो मुझे एक मशीन का दांता बनाएगा
जो चेहरे पर एक मासूम सी अदा लेकर
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को नष्ट करेगा
एक प्रहार करके
मुझे चूर चूर करेगा
जैसे अंजुली का पानी छलक जाए

उनको मुझे पत्थर बनाने मत देना
या न ही छलकने देना
 यह न कर पाओ तो
 मुझे नष्ट कर देना
****

अनुवाद- विजय नगरकर
vpnagarkar@gmail.com
09657774990

मूल अंग्रेजी कविता-  'Prayer before birth'
 Poet -. Louis MacNeice

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

बलराज साहनी का हिंदी प्रेम

टैगोर ने कहा पंजाबी में लिखो, बलराज साहनी ने कहा हिन्दी देश की भाषा
बलराज साहनी 
(बलराज साहनी प्रतिबद्ध अभिनेता भर नहीं रहे, लेखक और चिंतक भी रहे. इप्टा के साथ ही वे प्रगतिशील लेखक मंच से भी जुड़े रहे. यहां हम उनके एक काफ़ी लम्बे पत्र का एक अंश छाप रहे हैं, जो उन्होंने सन् 1970 के आसपास लिखा था. उस दौर की हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने जब उनका यह ख़त नहीं छापा तो उन्होंने इसे पैम्फ़लेट की शक़्ल में छपाकर अपने कुछ लेखक दोस्तो के पास भेजा था. उस दौर में जब वह बाक़ायदा फ़िल्मों से वाबस्ता थे, भाषा और साम्प्रदायिकता के सवालों से भी जूझ रहे थे. उनके नज़रिये और फ़िक्र को इस ख़त से समझा जा सकता है.)
कभी मेरा भी नाम हिन्दी लेखकों में गिना जाता था. मेरी कहानियां अपने समय की प्रमुख पत्रिकाओं – विशाल भारत, हंस आदि में – नियमित रूप से प्रकाशित हुआ करती थीं. बच्चन, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, उपेंद्रनाथ अश्क – सब मेरे समकालीन लेखक और प्रिय मित्र हैं.
मेरी शुरू की जवानी का समय था वह – बहुत ही प्यारा, बहुत हसीन. मैंने कुछ समय शांतिनिकेतन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के पास और कुछ समय सेवाग्राम में गांधी जी के चरणों में बिताया. मेरा जीवन बहुत समृद्ध बना. शांतिनिकेतन में मैं हिन्दी विभाग में काम करता था. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरे अध्यक्ष थे. उनकी छत्रछाया में हिन्दी जगत के साथ मेरा सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया. सन् 1939 के अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में वे मुझे भी अपने संग प्रतिनिधि बनाकर बनारस ले गए थे, और वहां मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, निराला और साहित्य के अन्य कितने ही महारथियों से मिलने और उनके विचार सुनने-जानने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ.
यद्यपि आजकल मैं हिन्दी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा पंजाबी में लिखता हूं, फिर भी आप लोगों से ख़ुद को अलग नहीं समझता. आज भी मैं हिन्दी फ़िल्मों में काम करता हूं, हिन्दी-उर्दू रंगमंच से भी मेरा अटूट सम्बन्ध रहा है. ये चीज़ें, अगर साहित्य का हिस्सा नहीं तो उसकी निकटवर्ती ज़रूर हैं.
हिन्दी हमारे देश की एक विशेष और महत्वपूर्ण भाषा है. इसके साथ हमारी राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता का सवाल जुड़ा है. और इस दिशा में, अपनी अनेक बुराइयों के बावजूद, हिन्दी फ़िल्में अच्छा रोल अदा कर रही हैं.
लेकिन इस असलियत की ओर से भी आंखें बंद नहीं की जा सकतीं कि हिन्दी, कई दृष्टियों से, अपने क्षेत्र में और उससे बाहर भी कई प्रकार से साम्प्रदायिक और प्रांतीय बैर-विरोध और झगड़े-झमेले का कारण बनी हुई है. कई बार तो डर लगने लगता है कि कहीं एकता के लिए रास्ते साफ़ करने के बजाय वह उन रास्तों पर कांटे तो नहीं बिछा रही, जो हमें उन्नति और विकास के बजाय अधोगति और विनाश की ओर ले जाना चाहती है, जो हमारे पांव में फिर से साम्राज्यवादी ग़ुलामी की बेड़ियां पहनाना चाहती हैं.
उर्दू कन्वेंशन
पिछले साल, दिसम्बर में, बम्बई में एक उर्दू-कन्वेंशन बुलाई गई थी, जिसके सूत्रधार, डॉ. मुल्कराज आनंद. कृष्ण चंदर, सज्जाद जहीर, राजेंद्र सिंह बेदी और अली सरदार जाफ़री जैसे प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक थे. मैं उस समय बंबई में नहीं था, सो मुझे इस बात की ज़्यादा जानकारी नहीं है कि कन्वेंशन में क्या कुछ हुआ. लेकिन जब मैं वापस आया तो यह सुनकर बेहद हैरानी हुई कि हिन्दी का एक भी प्रगतिशील लेखक इस कन्वेंशन में शामिल नहीं हुआ था. ऐसे लगा, जैसे हिन्दी-उर्दू के सवाल पर प्रगतिशील लेखक संघ का, अन्दर-ही-अन्दर, उसी प्रकार बँटवारा हो चुका है, जैसे हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर हिन्दुस्तान का बँटवारा हो चुका है. मुझे बहुत गहरी निराशा हुई.
साथ ही, इस बात पर सख़्त हैरानी भी हुई कि कन्वेंशन की प्रौढ़ता बनाने के लिए सिक्ख युवकों का एक काफी बड़ा जत्था भी बंबई आया हुआ था, हालांकि हर कोई इस बात को जानता है कि उर्दू वाले कल तक उर्दू को ही पंजाब की भाषा मानते थे, और पंजाबी की उपभाषा का दर्जा देते थे. अनायास ही मेरे मन में एक मलिन-सा संशय उठा कि कहीँ उर्दू को अल्पसख्यंकों की भाषा क़रार देकर उसकी रक्षा के लिए अल्पसंख्यक जातियों को तो नहीं उकसाया जा रहा. कहीं उर्दू की रक्षा करने के लिए पंजाबी को केवल सिक्खों को भाषा तो नहीं बनना पड़ रहा? मन में यह घटिया विचार उठने पर मैंने ख़ुद को फटकारा. बेशक, पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में इस समय सिक्ख लेखक ही अधिक संख्या में हैं, लेकिन पंजाबी को सिक्खों की भाषा मानने का दावा कभी किसी ने नहीं किया. फिर, देश के इतने बड़े प्रगतिशील, मार्क्सवादी विद्वानों से कभी सपने में भी आशा नहीं की जा सकती कि ये भाषा की समस्या को साम्प्रदायिक राजनीति से जोड़ेंगे. लेकिन फिर भी रह-रह कर चिन्ता घेर लेती थी. एक बार पहले मेरा वतन पंजाब साम्प्रदायिक राजनीति की छुरी के नीचे अपना सिर दे चुका था और लाखों लोगों को व्यर्थ में क़ुर्बान होना पड़ा था. कहीँ क़िस्मत एक और बरबादी की शुरूआत तो नहीं कर रही, और यह सोचकर मीठी नींद लेते रहे थे कि ‘ऐसे भला कैसे हो सकता है?’
बाद में, नयी कहानियां में अमृतराय के दो सम्पादकीय लेख छपे. उसी पत्रिका में यशपाल, अमृतलाल नागर और नरेंद्र शर्मा आदि द्वारा उर्दू-कन्वेंशन सम्बन्धी दिए गए वक्तव्यों को पढ़कर मेरी चिन्ता और बढ़ी. फिर उपलब्धि नामक पत्रिका का एक पूरा अंक इस कन्वेंशन के लिए अर्पित किया गया देखा, जिसमें डा.धर्मवीर और अन्य कई लेखकों के विचार पढ़ने को मिले. धर्मयुग में प्रकाशित टीका-टिप्पणियाँ भी देखीं. मुझे लगा कि मानसिक अशान्ति केवल मेरे तक ही सीमित नहीं थी.
और आज यही मानसिक अशान्ति मुझे मजबूर कर रही है कि आपके सामने अपना दिल खोलूँ, अपने जीवन के कुछ अनुभव और विचार पेश करूं. मैं जानता हूं कि आप देश की भलाई, एकता और प्रगति के इच्छुक हैं, और आशा करता हूं कि जो कुछ अच्छा-बुरा मैं कहूंगा, उसे पूरी सद्भावना से परखेंगे. अगर मेरे मुँह ने कोई बुरी या नाजायज़ बात भी निकल जाए, तो मुझे अपना भाई या साथी समझकर माफ़ कर देंगे.
अब मैं अपनी बात पर आऊं,
भाषा सम्बन्धी अनुभव
मैं जब शांतिनिकेतन में था, तो गुरुदेव टैगोर मुझे बार-बार कहा करते थे, ‘तुम पंजाबी हो, पंजाबी में क्यों नहीं लिखते. तुम्हारा उद्देश्य होना चाहिए कि अपने प्रांत में जाकर वही कुछ करो, जो हम यहां कर रहे हैं.’
मैंने जवाब में कहा, हिन्दी हमारे देश की भाषा है. हिन्दी में लिखकर मैं देश भर के पाठकों तक पहुंच सकता हूँ.
वे हंस देते, और कहते, ‘मैं तो केवल एक प्रांत की भाषा में ही लिखता हूँ, लेकिन मेरी रचनाओं को सारा भारत ही नहीं, सारा संसार पढ़ता है. पाठकों की संख्या भाषा पर निर्भर नहीं करती.’
मैं उनकी बातें एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता. बचपन से ही मेरे मन में यह धारणा पक्की हो चुकी थी कि हिन्दी पंजाबी के मुक़ाबले कहीं ऊंची और सभ्य भाषा है. वह एक प्रांत की नहीं, बल्कि सारे देश की राष्ट्रीय भाषा है (उन दिनों देश सम्बन्धी मेरा ज्ञान उत्तरी भारत तक ही सीमित था).
एक दिन गुरुदेव ने जब फिर वही बात छेड़ी तो मैंने चिढ़कर कहा, ‘पता नहीं क्यों, आप मुझे यहां से निकालने पर तुले हुए हैं. मेरी कहानियां हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में छप रही हैं. पढ़ाने का काम भी मैं चाव से करता हूं. अगर यक़ीन न हो तो मेरे विद्यार्थियों से पूछ लीजिए. जिस प्रेरणादायक वातावरण की मुझे ज़रूरत थी, वह मुझे प्राप्त है. आख़िर मैं यहाँ से क्यों चला जाऊं?’
उन्होंने कहा, ‘विश्व भारती का आदर्श है कि साहित्यकार और कलाकार यहाँ से प्रेरणा लेकर अपने-अपने प्रांतों में जाएं और अपनी भाषाओं और संस्कृतियों का विकास करें तभी देश की सभ्यता और संस्कृति का भंडार भरपूर होगा.’
‘आपको पंजाबी भाषा और संस्कृति के बारे में ग़लतफ़हमी है,’ मैंने कहा, ‘हिन्दुस्तान से अलग कोई पंजाबी संस्कृति नहीं है. पंजाबी भाषा भी वास्तव में हिन्दी की एक उपभाषा है. उसमें सिक्ख-धर्मग्रंथों के अलावा और कोई साहित्य नहीं है.’
गुरुदेव चिढ़ गए. कहने लगे, ‘जिस भाषा में नानक जैसे महान कवि ने लिखा है, तुम कहते हो उसमें कोई साहित्य नहीं है.’
और जब मैंने अपने जीवन ये पहली बार उनके मुख से गुरु नानक की ये पक्तियाँ सुनी:
गगन में थाल रवि चंद दीपक बने
तारक मंडल जनक मोती
धूप मलयानलो पवन चंवरो करे
सगल वनराय फूलंत जोती ।…
और अगर मुझे याद धोखा नहीं देती, तो गुरुदेव ने साथ में यह भी कहा था, ’कबीर की वाणी का अनुवाद मैंने बंगाली ने किया है, लेकिन नानक की वाणी का अनुवाद का साहस नहीं हुआ. मुझे डर था कि मैं उनके साथ इंसाफ नहीं कर सकूंगा.’
उसी शाम आचार्य क्षितिमोहन सेन के साथ नंगे पाँवों लम्बी सैर पर जाने का मौका मिला, जो भक्तिकाल सम्बन्धी सर्वोच्च खोजी और विद्वान माने जाते हैं. जब उनसे गुरुदेव के साथ हुई बातचीत का ज़िक्र छिड़ा, तो अचानक उनके मुँह से निकला, ‘पराई भाषा में लिखने वाला लेखक वेश्या के समान है. वेश्या धन-दौलत, मशहूरी और ऐशइशरत भरा घरबार सब कुछ प्राप्त कर सकती है, लेकिन एक गृहिणी नहीं कहला सकती.’
मैं मन ही मन बहुत खीझा. बंगाली लोग प्रांतीय संकीर्णता के लिए प्रसिद्ध थे. लेकिन टैगोर और क्षितिमोहन जैसे व्यक्ति भी उसका शिकार होंगे, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.
गाँधी जी के विचार
फिर मुझे एक और धक्का लगा. शांतिनिकेतन से मुझे कुछ समय के लिए ’बुनियादी तालीम’ संस्था की पुस्तकें अनुवाद करने के लिए सेवाग्राम जाना पड़ा. वहाँ गाँधी जी को निकट से देखने का मौक़ा मिला. और यह देखकर हैरानी हुई कि वे अपना अधिकांश लेखन-कार्य गुजराती में करते थे. गाँधी जी पर मैं प्रांतीय मनोवृत्ति का दोष कैसे लगा सकता था, जबकि वे हमारी राष्ट्रीय चेतना के जन्मदाता थे? राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी-हिन्दुस्तानी’ सबसे बड़ा प्रकाश-केंद्र भी तो वही थे. फिर, वे राष्ट्रभाषा को छोड़कर अपनी प्रांतीय भाषा में क्यों लिखते थे?
इस बारे में एक दिन मैं उनसे पूछ ही बैठा. मेरा सवाल सुनकर ये भोंचक्के रह गए, जैसे सोचने लगे हों कि कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति ऐसा बचकाना सवाल कैसे पूछ सकता है. आख़िर उन्होंने कहा, मातृभाषा तो मां के दूध जैसी मीठी होती है. राष्ट्रभाषा का मनोरथ प्रांतीय भाषाओं को ख़त्म करना नहीं, बल्कि उनकी रक्षा करना है, उन्हें एक-दूसरे के निकट लाना और प्रेमसूत्र में पिरोना है.
मैं फिर भी न समझ सका. मेरे दिमाग़ में कई सवाल उठ रहे थे. गाँधी जी हिन्दी-हिन्दुस्तानी को एक सीधी-सादी और आम बोलचाल की भाषा तक सीमित रखना चाहते थे, जिसमें न तो मोटे-मोटे फ़ारसी शब्दों का प्रयोग हो, न ही बड़े-बड़े संस्कृत शब्दों का. इसके लिए वे लिपियां भी दो चाहते थे –देवनागरी और फ़ारसी. ये दोनों बातें ही मुझे अव्यावहारिक लगती थीं. हिन्दी को किस हद तक, कब तक और क्यों केवल आम बोलचाल की भाषा रखा जाएगा? उसके विकास पर क्यों बंधन लगाए जाएंगे, जबकि वे बंधन प्रांतीय भाषाओँ पर नहीं लगाए जाते. राष्ट्रभाषा को तो प्रांतीय भाषाओं की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध बनाना चाहिए. और एक भाषा के लिए दो लिपियों को परवान करना कहाँ की अक्लमंदी है?
मुझे याद है, इस समस्या के बारे में उन दिनों मेरे मन में निरन्तर उथल-पुथल मची रहती थी. मैं मौक़ा ढूँढता रहता कि कब गांधी जी के साथ दोबारा इस बारे में बातचीत करूँ. लेकिन वह मौक़ा न मिला. दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था, और गाँधी जी राजनीतिक मामलों में बहुत ज्यादा उलझ गए थे.
एक दिन उन्हें मिलने के लिए ऑल इंडिया रेडियो के अंग्रेज़ डायरेक्टर-जनरल, मिस्टर लाइनल फील्डन, वहां आए. वे हिन्दुस्तान से इस्तीफ़ा देकर लंदन के बी.बी.सी. में हिन्दुस्तानी विभाग खोलने के लिए जा रहे थे. वे अपने तुरन्त और हंगामी फ़ैसलों के लिए अद्वितीय थे. वे आए थे गाँधी जी को अलविदा कहने, लेकिन जाते समय मुझे अपने साथ रेडियो अनाउन्सर के रूप में लंदन ले गए.
लंदन में
उस ज़माने में, रेडियो पर उर्दू का वैसा ही बोलबाला था, जैसा आज हिन्दी का है. शुरू से अन्त तक सभी काम उर्दू लिपि और उर्दू भाषा में ही किए जाते थे. और मैं इन दोनों में लगभग कोरा था. हिन्दुस्तान से चलने से पहले कई बार दिल में आया था कि फील्डन से इस बारे में खुलकर बात करूँ, लेकिन लंदन और युद्ध को निकट से देखने का चाव मुझे रोकता रहा.
दो-तीन अनाउन्सर वहां पहले से पहुंच चुके थे. सभी उर्दू के माहिर उस्ताद. वे हिन्दी न जानते थे, न ही उसे गिनती में लाते थे. उर्दू से अन्जान होने के अलावा मेरी एक और कमज़ोरी यह थी कि माइक्रोफ़ोन पर बोलने का तजुर्बा भी मुझे बहुत कम था. फिर, बोलने का लहज़ा इतना ज्यादा पंजाबी कि अपनी पहली रिकार्डिंग सुनकर मेरे अपने कान फटने को आ गए थे. तब मेरा सारा अहंकार मिट्टी में मिल गया कि फील्डन मुझे सेवाग्राम से विशेष रूप से अपने साथ लंदन लाए थे. आख़िर मैं भी उनकी नज़र में खटकने लगा. फिर तो मुझे साफ़ दिखाई देने लगा कि वहाँ मेरा ज्यादा देर टिकना सम्भव नहीं था.
मेरा मन ग़ुस्से आर ग्लानि से भर गया. एक तो, मैंने ख़ुद इस नौकरी की मांग नहीं की थी, बल्कि सारे आश्रमवासियों को नाराज़ और दुखी करके आया था. दूसरे, एक साहित्यकार के तौर पर मेरा कुछ महत्व था. मैं हिन्दी के पहली श्रेणी के कहानीकारों में गिना जाता था. मेरी कई रचनाएं उर्दू में अनूदित होकर अदबे लतीफ़ जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छप चुकी थीं. इस सब कुछ का क्या कोई महत्त्व नहीं था? क्या हिन्दी भाषा के अपने अधिकार नहीं थे? जिस भाषा में प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, यशपाल, बच्चन, सुमित्रानंदन पंत जैसे महान साहित्यकारों ने लिखा हो, उसे इस प्रकार अवहेलना की दृष्टि से देखना क्या पहले दर्जे का अन्याय नहीं था? रहा सवाल पंजाबी लहज़े का. उसे सुधारते कौन सी देर लगती है. किसी की थोड़ी मदद और अभ्यास ही की तो ज़रूरत है.
यह बात मुझे दिन-प्रतिदिन स्पष्ट हो रही थी कि अगर मैंने अपने बचाव के लिए ख़ुद कोई कोशिश न की, तो बिस्तर गोल होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. मैं सारी-सारी रात बिस्तर पर करवटें बदलता सोचता रहता. आख़िर क्या करूँ? क्यों न बीबीसी के डायरेक्टर-जनरल को मिलकर अपना दुख उनके सामने रखूँ और इस घोर अन्याय का पर्दाफाश करूँ. मैं लाइनल फील्डन को मुंह की खिला सकता था. भारत के हिन्दी समर्थकों को उकसाकर उनके लिए अच्छा ख़ासा सिरदर्द पैदा कर सकता था.
लेकिन फिर, मन में दूसरी तरह के विचार मंडराने लगते. मैं गाँधी जी के चरणों से उठकर अंग्रेज़ों के क़दमों में गिरा था. वह कोई मामूली गिरावट नहीं धी और अब शिकायती टट्टू बनना, अपने घर के लड़ाई-झगड़ों को दुश्मन के सामने नंगा करना, उससे न्याय की मांग करना, क्या यह शर्म से डूब मरने वाली बात नहीं होगी. दूसरों की इज़्ज़त उछालते हुए क्या मेरी इज्ज़त रह जाएगी? इससे देश का अपमान न होगा? अंग्रेज़ अफ़सरों को मुंह मागी मुराद नहीं मिल जाएगी? हमारी अनबन का वे पूरा लाभ नहीं उठाएँगे? फिर, लाइनल फील्डन आम अंग्रेज़ अफ़सरों जैसे नहीं थे. वे गाँधी के भक्त थे, और हिन्दुस्तान की आज़ादी के सच्चे चाहवान. वे वाइसराय तक को नाराज़ करके इस ख़याल से मुझे अपने साथ ले गए थे कि मेरा व्यक्तित्व आम जी-हुजूरी करने वाले सरकारी कर्मचारियों से कुछ अलग होगा. क्या ऐसे व्यक्ति के विश्वास को तोड़ना उचित होगा?
एक दिन में कैंटीन में कॉफ़ी पी रहे अपने साथियों के सामने फूट पड़ा, ‘हिन्दी के हक़ मनवाने का बीड़ा उठाकर मैं भी आप लोगों को उतना ही परेशान कर सकता हूँ जितना इस समय आप मुझे कर रहे हैं. नतीजा हम दोनों के लिए बुरा होगा. फ़ायदा होगा तो सिर्फ़ अंग्रेज़ों का. हमारी कौमी इज्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी. मैं आपके आगे एक प्रार्थना करता हूँ. मगर आप लोग मेरी बेकद्री करना छोड़ दें, बल्कि मेरी मदद करें, तो मैं दिन-रात मेहनत करके थोड़े-से अरसे में ही उर्दू सीख लूँगा. उर्दू मैंने सातवीं जमात तक पढ़ी हुई भी है.’
इस सुझाव का मेरे साथियों पर बहुत अच्छा असर पड़ा. विदेश में प्रत्येक व्यक्ति की राष्ट्रीय भावना जाग उठती है. मेरे साथियों ने महसूस किया कि मैंने अच्छी और सही बात की थी. उसी दिन से उनके साथ मेरे सम्बन्ध अच्छे बन गए. सबने दिल खोलकर मेरी मदद करनी शुरू कर दी. दो-तीन महीनों में ही उर्दू में अच्छी तरह अपना काम करने लगा. पूरे चार साल मैं वहाँ रहा. इस अरसे में कभी एक बार भी अंग्रेज़ हमें एक-दूसरे के प्रति न भड़का सके. हमारा आपसी प्यार और भाईचारा दूसरे विभागों कं लिए भी एक अच्छा उदाहरण बन गया था. वह समय बहुत अच्छा बीत गया.
उर्दू साहित्य का अध्ययन
उर्दू साहित्य का अध्ययन करने से मेरी आंखें खुल गईं. ऐसे लगा, जैसे कोई खोया हुआ ख़जाना मिल गया हो. मन मेँ समाये सभी बैर-विरोध और गलत धारणाएं ख़त्म हो गईं. कितना विशाल, कितना गौरववान था उर्दू साहित्य. ग़ालिब की ग़ज़लें पढ़ते हुए ऐसे लगता है, जैसे मेरी आत्मा पर कोई नया सूर्योदय हो रहा हो. इसी प्रकार अद्वितीय और अविस्मरणीय आनंद कॉलेज के ज़माने में शैली की रचना प्रोमीथियस अनबाउंड और शेक्सपीयर का नाटक हेनरी फ़ोर्थ– भाग पहला पढ़कर आया था. ऐसी अनुभूतियां जीवन की पूंजी बन जाती हैं.




मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

संसदीय राजभाषा निरीक्षण समिति -ध्यान देने योग्य बातें



*संसदीय राजभाषा समिति निरीक्षण : राजभाषा अधिकारी मित्रों के विशेष ध्यानार्थ*

• निरीक्षण संबंधी सूचना प्राप्त होते ही कार्यालय प्रधान के ध्यान में लाते हुए उच्च नियंत्रक कार्यालय और प्रधान कार्यालय को तत्काल अवगत कराना होगा।

• निरीक्षणाधीन शाखा/कार्यालय के स्टाफ़ सदस्यों की बैठक बुलाकर निरीक्षण संबंधी सूचना प्रणाली से अवगत कराकर, अपेक्षित सूचना प्रस्तुत करने हेतु उन्हें लिखित पत्र जारी करने होंगे।

• सामान्य व्यवस्था संबंधी ज़िम्मा राजभाषा अधिकारी न लें। कर्तव्यों का आबंटन हो।

• राजभाषा अधिकारी का ध्यान प्रश्नावली की सही/स्पष्ट प्रस्तुति, आधारभूत सामग्री का संकलन, अभिलेखों का अद्यतन, प्रदर्शनी सामग्री की तैयारी इत्यादि पर हो।

• संसदीय राजभाषा समिति कार्यालय को भरी गई प्रश्नावली प्रस्तुत करने के पूर्व प्रधान कार्यालय का अनुमोदन प्राप्त करना अनिवार्य है।

• स्वतः निर्णय न लें। निरीक्षण संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी का सक्षम प्राधिकारी से लिखित अनुमोदन अवश्य प्राप्त करना होगा।
संयोजक कार्यालय और प्रधान कार्यालय से प्राप्त मार्गदर्शन एवं निर्देशों पर विशेष ध्यान देना होगा।

• निरीक्षण संबंधी संयोजक कार्यालय और ज़रूरतानुसार संसदीय राजभाषा समिति कार्यालय के समन्वयक अधिकारी तथा अपने प्रधान कार्यालय से संपर्क में रहना होगा।

• प्रश्नावली भरने में त्रुटि न हो।जोड-घट, समरूप प्रश्नों के लिए अलग अलग उत्तर,  अंग्रेज़ी-हिन्दी पाठ में समानता न होना, अंग्रेज़ी की तुलना में हिंदी फांट का आकार कम होना, …. चिह्न के बजाए रु. लिखना इत्यादि।

• ऊपरी दिखावट न हो। उपलब्ध अभिलेखों एवं कृत कार्रवाई के अनुसार जानकारी प्रस्तुत करनी होगी।

• गत निरीक्षण के आंकड़े कोष्ठक में देने होंगे।

• समाधान की पंक्तियाँ स्पष्ट और शालीनता पूर्ण हों।(जी हाँ, जी नहीं…..)

• ‘प्रयासरत, प्रयत्नशील, कार्य प्रगति पर’  इत्यादि शब्दों/वाक्यों का प्रयोग न करते हुए वस्तुस्थिति से संक्षेप में अवगत कराना होगा।

• देखना होगा कि सभी अनुबंध स्पष्टत: तैयार कर संलग्न किए गए हैं।

• कार्यालय प्रमुख को सभी प्रश्नों और उत्तरों से स्पष्टत: अवगत कराना होगा।

• संभाव्य प्रश्नों के उत्तर तैयार कर उनसे भी कार्यालय प्रमुख को अवगत कराना होगा। (हिंदी ज्ञान की स्थिति, स्टाफ़ सदस्यों द्वारा कृत हिंदी कार्य की प्रतिशतता, प्रवीणता आदेश, राजभाषा कार्यान्वयन समिति के सदस्यों द्वारा हिन्दी में कार्य, हिंदी में डिक्टेशन, मूल पत्राचार में हिंदी, अंग्रेज़ी में प्राप्त पत्रों का उत्तर हिंदी में दिया जाना, शीर्षस्थ बैठकों में हिंदी का प्रयोग, हिंदी सॉफ़्टवेयर,हिन्दी टंकण कार्य की प्रतिशतता, हिंदी पुस्तकालय पर कृत व्यय की प्रतिशतता, हिंदी प्रतियोगिता पुरस्कार राशि, सेवा अभिलेखों में प्रविष्टियाँ, प्रचार सामग्री एवं विज्ञापनों में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं पर कृत व्यय की प्रतिशतता पर अधिक ध्यान दिया जाता है।)

• राजभाषा प्रदर्शनी की व्यवस्था, पावर पाइंट प्रस्तुति (पूर्वानुमति से) पत्रिकाओं/बुलेटिनों/पुस्तकों का विमोचन (पूर्वानुमति से) पर ध्यान देना होगा। 

• आवश्यक समर्थन सामग्री के अभिलेख साथ रखने होंगे। यथा विज्ञापन एवं प्रचार पर कृत व्यय संबंधी पत्र की प्रति, धारा3(3)के पिरलेख, तिमाही रिपोर्ट, बैठकों के कार्यवृत्त, रोस्टर, अनुदेश पुस्तिकाएँ, प्रक्रिया साहित्य, प्रमुख प्रपत्र, प्रेस विज्ञप्ति इत्यादि।
                   *********
(साभार- डॉ वी व्यंकटेश्वर राव)

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

पसायदान

संत ज्ञानेश्रर जी ने ज्ञानेश्वरी ग्रंथ अर्थात "सटीक भावार्थ दीपिका"  पूर्ण करने के उपरांत ईश्वर को जो प्रार्थना लिखी थी,उसे 'पसायदान' से मराठी विश्व में ख्याति प्राप्त हुई है। अत्यंत कष्टदायी जीवन बिताने पर गीता ग्रंथ पर सटीक विवरण प्राकृत मराठी में लिखा। संन्यासी के पुत्र के नाम से जाति से बहिष्कृत किया गया। सनातन धर्म की ज्योत प्रज्वलित करके आम लोगों में ज्ञान गंगा प्रवाहित की। तत्कालीन आसान प्राकृत भाषा में गीता का ज्ञान प्रवाहित किया जो वर्षों से संस्कृत भाषा की मर्यादा में बंधा हुआ था।संत ज्ञानेश्वर संतों में क्रांतिकारक संत थे जिहोंने दीन दुखी आम लोगों के लिए धार्मिक कार्य किया। मराठी के प्रथम आद्य कवि, अनुवादक, समीक्षक, मार्गदर्शक संत ज्ञानेश्वर के चरणों पर  पसायदान का हिंदी अनुवाद सविनय सादर प्रस्तुत है। मेरी अल्प बुद्धि से यह अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।इस अनुवाद की समीक्षा,सुधार हेतु हिंदी लेखिका कवियत्री डॉडॉ. अन्नपूर्णा सिंह जी हार्दिक धन्यवाद।

*पसायदान*

विश्वरचयिता ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ
मेरे वाक यज्ञ से संतुष्ट होकर
मुझे अनुग्रहित करके प्रसाद प्रदान करें। (1)
दुष्टों की दुर्भावना का अंत हो,
सत्कर्म के प्रति दुष्टों की आस्था बढ़े
विश्व में मित्र भाव प्रवाहित होकर
सभी जीवों में मित्रता बढ़े । (2)
पापी के मन का अज्ञान रुपी अंधकार दूर हो
विश्व में स्वधर्म रुपी उषा काल हो
सभी जीवों की मंगल मनोकामनाएँ पूर्ण हो (3)
सर्वत्र मंगल वृष्टि से
 सकल विश्व को पुलकित करनेवाले
ईश्वरनिष्ठ   संत
 सभी जीवों पर कृपा करें (4)
वे सभी सुसंवादी  संत कल्पतरु समान
 उद्यान हैं
चेतनारूपी  चिंतामणी रत्नों के पुर हैं
अमृत स्वर की गर्जना करनेवाले समुद्र हैं (5)
बेदाग पूर्णिमा के चंद्र और
ताप रहित सूर्य के समान संत सज्जन
सभी जीवों के मित्र हो जाएं  (6)

त्रिलोकों में सर्व सुख सम्पन्न पूर्ण होकर
विश्व के आदि पुरुष की सेवा करें (7)
यह ग्रंथ जिनका जीवन है
वे इस विश्व के दृश्य और अदृश्य
भोग पर विजय प्राप्त करें (8)
इति विश्वेश्वर गुरु श्री निवृत्तिनाथ
आशीर्वाद देकर  बोले
यह प्रसाद तुझे प्राप्त हो
यह वर पाकर ज्ञानदेव सुखी हो गया (9)

ज्योतिबा

(समाज सुधारक और देश में नारी को शिक्षा देने के लिए पहला  स्कूल पुणे में खोलने वाले ज्योतिबा फुले पर लिखी गयी मराठी कविता का हिंदी अनुवाद)  ----

ज्योतिबा
धन्यवाद।
आप  उसे
दहलीज के
बाहर ले आये,
क ख ग घ
त थ द ध
पढ़ाया
और
कितना बदलाव आया है ,
अब उसे
दस्तख़त के लिए
बायी अंगुली पर
स्याही लगानी नहीं पड़ती ,
अब वह स्वयं
लिख सकती है .........
मिटटी का तेल स्वयं पर
छिड़कने  से पहले
( उसके पीछे रहनेवाले बच्चों को ध्यान में रखकर)
" मैं अपनी मर्जी से
जल कर ख़ाक हो रही हूँ "
------------------------------------------------------------------
(मराठी कवि - अशोक नायगांवकर )
हिंदी अनुवाद- विजय नगरकर

अब इस गांधी का क्या करें ?

अब इस गांधी का क्या करें ?😊    (कविता)    **************************

जलाने पर भी दहन नहीं हो रहा               
खत्म करने पर भी  खत्म नहीं हो रहा ,
 हत्या करके भी मर नहीं रहा
   इस गांधी का अब क्या करें?

  मूर्ति तोड़ने पर भी
   अभंग है
   बदनामी के सैलाब में भी
   अचल है
                                       
बदनामी के चक्रवात में                           .              जनमानस में अमर है,
 
चरित्र के साथ  खूब खिलवाड़ किया                                                                             विचारों से भटका दिया,
केसरिया रंग में  पोत दिया

   थक गया हूँ इस 70 सालों से
     अब हम करें तो क्या करें ?                                                                                अब इस गांधी का क्या करें?     
                                                                            कितनी बार पेड़ काटें?       
  जड़े फिर भी जमीन के अंदर
 फैल रही है हर दिशा में
                                                                                             
खत्म हुआ
कहते कहते
चर्चा के चक्रवात में   
  घूम रहे है,
उसके विचार बार बार
   बापू, तेरा नाम पोछने पर भी
 उजागर हो रहा है।

   हम  अब इस 70 सालों में
जमीन के अंदर
धंस   गए है
  पिछले 70 सालों से
एक ही सवाल
   इस गांधी का अब क्या करें ? ***************************.   
 मूल मराठी कविता - हेरंब कुलकर्णी  (8208589195 )

(हिंदी अनुवाद- विजय प्रभाकर नगरकर)

आई

 मराठी कविता "आई"

माँ एक नाम है
अपने आप भरा पूरा
 घर में जैसे एक गाँव है,
सभी में मौजूद रहती है
अब इस दुनिया से दूर है
लेकिन कोई मानता नहीं।
मेला खत्म हुआ, दुकानें उठ गई
परदेस में क्यों आंखे नम हुई,
माँ हर दिल में कुछ यादें छोड़ जाती है
हर दिल जानता है माँ का दिल,
घर में जब दीप जले
कोई नहीं देखता उसे
अंधरे में जब वह बुझ जाती है
तब समूचे मैदान में दिशाहीन
मन उसके लिए दौड़ता है,
कितनी फसलें , कितने फासले
मिट्टी की प्यास कब बुझ पाई है।
कितना खोदा है माटी को बार बार
नजर आता है कुआं
मन के गहरे पाताल में,
इससे क्या अलग है माँ?
घर जब वह मौजूद नहीं
किसके लिए गोशाला में गाय  व्याकुल है

माँ का नाम क्या है
बच्चों की माँ है
बछड़ों की गाय है
दूध का माखन है
लंगड़े का पैर है
धरती का आधार है
माँ है जन्म जन्मांतर की रोटी है
ना कभी खत्म होती है
ना कभी बचती है

मूल मराठी कविता-आई
कवि-फ मु शिंदे
हिंदी अनुवाद-विजय नगरकर

"अपूर्ण कविता"

■ "अपूर्ण कविता"

स्कूल छूटने की बेल की आवाज
हवा में गूँज  ही रही थी तब
मैं मशीन की गति से
घर पहुंचा था,
पीठ पर लटका बस्ता फेंक
घोड़े जैसा दौड़ कर
पहुँच जाता था खेल के मैदान में
मस्तमौला बैल सा
धूल मिट्टी में नहाकर
इतराता था अपने मर्द होनेपर
वो भी आती थी स्कूल से
घर के चार मटकियां पानी से भर
घर आंगन बुहारकर
देवघर में ज्योत जगाकर
वह बनाती थी रोटी
मां जैसी गोल गोल
और राह निहारती देहरी पर
माँ के लौटने तक जंगल से,

वह चित्र निकालती थी
और रंगोली सजाती
घर के आंगन में
मीरा के भजन और
पुस्तक की कविताएं
गाती थी मीठे स्वर में

बर्तन मांजना, कूड़ा कचरा बीनना
आँगन बुहारना,
और न जाने कितने काम
वह करती रही
मैं हाथ पांव पसारकर
सो जाता था
वह किताबे लेकर बैठती थी
दीपक की रोशनी में देर तक

एक ही कक्षा में थे हम
गुरुजी कान मरोड़कर
या कभी शब्दों की फटकार से
मुझे उपदेश देते
" तेरी बड़ी बहन जैसा बनेगा तो
जीवन सुधर जाएगा तेरा "
मैं दीदी की शिकायत करता था माँ के पास
मैट्रिक का पहाड़
पार किया मैंने फूलती साँस लेकर
उसने अच्छे अंक हासिल किए थे
बापू ने कहा
मैं दोनों का खर्चा नहीं उठा पाऊंगा
आंख का पानी छुपाकर
उसने कहा था
भैया को आगे पढ़ने दीजिए
उसके  बाद जन्मे भाई के
  रास्ते से  चुपचाप हटकर
वह बनाती गई उपले
माँ के साथ खेती का काम करती
काँटे झाड़ी हटाती गई
नारी बनकर अंदर ही अंदर
टूटती गई,
उसके भाग्य का कौर चुराकर
मैं आगे बढ़ता गया
किताबों की राह पर,

 मैं बात जान गया
दिल में टिस रह गयी
उसने आंख का पानी
क्यों छुपाया था,
उसको ब्याह कर
बापू आज़ाद हुए
माँ की जिम्मेदारी खत्म हुई
अभी तक मेरा मन
अपराधी है अव्यक्त बोझ तले,

भैयादूज, रक्षा  बंधन के दिन
दीदी मायके आती रही
सहर्ष सगर्व
छोटे भाईके वैभव देख कर
हर्ष विभोर होती रही
बुरी नजर उतारती रही
भारी आंखों से आरती उतारती रही
ससुराल लौटते हुए
छोटे भाई को देती रही अशेष आशीष,

उसके जाने के बाद
मेरा मन जलता रहा दीपक समान
जिसकी रोशनी में
वह पढ़ती थी किताबें
और कविताएँ
उसकी कविता
मेरे लिए
रही अपूर्ण।
■■
हिंदी अनुवाद- विजय नगरकर।
मूल मराठी कविता - पुनीत मातकर | गडचिरोली |  7039921832

बुधवार, 12 जून 2019

पसायदान


संत ज्ञानेश्रर जी ने ज्ञानेश्वरी ग्रंथ अर्थात "सटीक भावार्थ दीपिका"  पूर्ण करने के उपरांत ईश्वर को जो प्रार्थना लिखी थी,उसे 'पसायदान' से मराठी विश्व में ख्याति प्राप्त हुई है। अत्यंत कष्टदायी जीवन बिताने पर गीता ग्रंथ पर सटीक विवरण प्राकृत मराठी में लिखा। संन्यासी के पुत्र के नाम से जाति से बहिष्कृत किया गया। सनातन धर्म की ज्योत प्रज्वलित करके आम लोगों में ज्ञान गंगा प्रवाहित की। तत्कालीन आसान प्राकृत भाषा में गीता का ज्ञान प्रवाहित किया जो वर्षों से संस्कृत भाषा की मर्यादा में बंधा हुआ था।संत ज्ञानेश्वर संतों में क्रांतिकारक संत थे जिहोंने दीन दुखी आम लोगों के लिए धार्मिक कार्य किया। मराठी के प्रथम आद्य कवि, अनुवादक, समीक्षक, मार्गदर्शक संत ज्ञानेश्वर के चरणों पर  पसायदान का हिंदी अनुवाद सविनय सादर प्रस्तुत है। मेरी अल्प बुद्धि से यह अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।इस अनुवाद की समीक्षा,सुधार हेतु हिंदी लेखिका कवियत्री डॉडॉ. अन्नपूर्णा सिंह जी हार्दिक धन्यवाद।

*पसायदान*

विश्वरचयिता ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ
मेरे वाक यज्ञ से संतुष्ट होकर
मुझे अनुग्रहित करके प्रसाद प्रदान करें। (1)
दुष्टों की दुर्भावना का अंत हो,
सत्कर्म के प्रति दुष्टों की आस्था बढ़े
विश्व में मित्र भाव प्रवाहित होकर
सभी जीवों में मित्रता बढ़े । (2)
पापी के मन का अज्ञान रुपी अंधकार दूर हो
विश्व में स्वधर्म रुपी उषा काल हो
सभी जीवों की मंगल मनोकामनाएँ पूर्ण हो (3)
सर्वत्र मंगल वृष्टि से
सकल विश्व को पुलकित करनेवाले
ईश्वरनिष्ठ   संत
सभी जीवों पर कृपा करें (4)
वे सभी सुसंवादी  संत कल्पतरु समान
उद्यान हैं
चेतनारूपी  चिंतामणी रत्नों के पुर हैं
अमृत स्वर की गर्जना करनेवाले समुद्र हैं (5)
बेदाग पूर्णिमा के चंद्र और
ताप रहित सूर्य के समान संत सज्जन
सभी जीवों के मित्र हो जाएं  (6)

त्रिलोकों में सर्व सुख सम्पन्न पूर्ण होकर
विश्व के आदि पुरुष की सेवा करें (7)
यह ग्रंथ जिनका जीवन है
वे इस विश्व के दृश्य और अदृश्य
भोग पर विजय प्राप्त करें (8)
इति विश्वेश्वर गुरु श्री निवृत्तिनाथ
आशीर्वाद देकर  बोले
यह प्रसाद तुझे प्राप्त हो
यह वर पाकर ज्ञानदेव सुखी हो गया (9)

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

अमेरिकन प्रोजेक्ट में हिंदी

The Gateway to Educational Material (GEM) यह अमेरिकन सरकार का प्रोजेक्ट है जो सिराकस यूनिवर्सिटी को दिया गया था।तब कंप्यूटर और इंटरनेट पर हिंदी भाषा ने नया कदम रखा था।
    मुझे यह देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ था कि इस अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट में हिंदी भाषा को शामिल नहीं किया था। विश्व की अनेक भाषाओं की जानकारी लिंक सहित वहां उपलब्ध थी।मुझे यह बात हजम नहीं हुई कि हिंदी सर्च करने पर वहाँ निल रिपोर्ट आ रही थी।
    मैंने इस प्रोजेक्ट में हिंदी भाषा संबंधित वेब पेजेस, भारत सरकार के प्रोजेक्ट,हिंदी सॉफ्टवेयर आदि विस्तृत जानकारी लिंक सहित अमेरिकन प्रोजेक्ट को प्रदान की थी।
  मेरे इस योगदान को अमेरिकन प्रोजेक्ट ने स्वीकार की थी।उसकी परिवर्तन नीति में मेरी स्वीकृति ली गई थी।
  मेरे लिए यह गौरव की बात थी।
मैं हर बार पुणे जाता तो सी डैक जरूर जाता था।वहां हिंदी विभाग के साइंटिफिक ऑफिसर से संपर्क करता था।मेरे मन में हिंदी और  सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर रोमांचक उत्साह था।
    इसके बाद मैंने हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी के अभ्यास में कार्यरत रहा।

(नोट-मेरा पहला सरनेम "कांबळे"था जो बाद में "नगरकर"में गैज़ेट द्वारा परिवर्तित किया गया।)

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

भावी पीढ़ियों के लिए मूल भाषाओं में प्राण फूंकने की पुकार

हाल के दशकों में पुरखों के ज़माने से चली आ रही सैंकड़ों भाषाएं धीरे धीरे शांत होने लगी हैं. उन्हीं के साथ विलुप्त हो गई है उन्हें बोलने वाले लोगों की संस्कृति, ज्ञान और परंपराएं. जो भाषाएं बच गईं हैं उन्हें संरक्षित रखने और नए प्राण फूंकने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने मूल भाषाओं के अंतरराष्ट्रीय वर्ष की आधिकारिक शुरुआत की है. 


अपने उदघाटन संबोधन में मोहाक समुदाय के प्रमुख कैनन हेमलॉक ने पृथ्वी को श्रृद्धांजलि अर्पित की. "मूल निवासियों के तौर पर हमारी भाषाएं पृथ्वी की भाषाएं हैं और ये वो भाषाएं हैं जिन्हें हम अपनी मां के साथ बोला करते थे. हमारी भाषाओं का स्वास्थ्य पृथ्वी के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है."


"हम अपना संपर्क खो देंगे और फिर  पृथ्वी को जानने समझने की सदियों पुरानी जानकारी चली जाएगी. हमारे भविष्य और आने वाली पीढ़ियों के लिए ज़रूरी है कि हम अपने पुरखों की भाषाओं का उपयोग करें."

संयुक्त राष्ट्र महासभा अध्यक्ष मारिया फ़र्नान्डा एस्पिनोसा ने मूल भाषाओं और पैृतक संस्कृति और ज्ञान में अहम संबंध को रेखांकित किया. "वे संप्रेषण के माध्यम से कहीं ज़्यादा हैं. वे मानवीय विरासत को आगे बढा़ए जाने का ज़रिया हैं."

"हर मूल भाषा का मानवता के लिए एक ख़ास अहमियत है जो इतिहास, मूल्य, साहित्य, अध्यात्म, परिप्रेक्ष्य और ज्ञान का अपार खजाना है जिसे सदियों से विकसित और पोषित किया गया है. जब कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके बाद उसके साथ जुड़ी स्मृतियों को भी वो ले जाती है."

"मूल भाषाएं लोगों की पहचान का प्रतीक हैं, जीवन जीने का तरीक़ा हैं और पृथ्वी के साथ संबंध को अभिव्यक्त करने का माध्यम." एस्पिनोसा ने उन्हें बचाए जाने को बेहद अहम करार दिया है. 

मूल भाषाएं पुरखों के ज़माने से चली आ रही ज्ञान प्रणालियों और प्रथाओं के बारे में भी अवगत कराती हैं विशेषकर कृषि, जीव विज्ञान, चिकित्सा, खगोल शास्त्र और मौसम विज्ञान से जुड़ा ज्ञान.  दुनिया में इस 4,000 मूल भाषाएं अब भी मौजूद हैं लेकिन अधिकतर विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रही हैं. 

"यह अंतरराष्ट्रीय वर्ष एक ऐसा मंच बनना चाहिए जिसके ज़रिए हम तेज़ी से ख़त्म होती भाषाओं के इस रुझान को पलट सकें. उन्हें बचा सकें और पोषित कर सकें. ऐसी शिक्षा प्रणाली को विकसित कर सकें जिसमें मातृ भाषा से सीखने पर ज़ोर हो."

बोलिविया के ईवो मोरालेस ने औपनिवेशिक ताकतों से मूल निवासियों और भाषाओं को बचाने पर बल दिया. "औपनिवेशिक काल से बच कर हम आज यहां तक आए हैं. उस समय हमारे पुरखों को उनके घुटनों के बल ला दिया गया था और अन्याय के बोझ तले कुचल दिया गया था."

उपस्थित लोगों से मोरालेस ने कहा कि संवाद के ज़रिए ऐसी नीतियों को बनाया जाना चाहिए ताकि मूल निवासियों का जीवन, पहचान, मूल्य और संस्कृति की रक्षा हो सके.  

90 देशों में 77 करोड़ से अधिक मूल निवासी रहते हैं जो वैश्विक जनसंख्या का छह फ़ीसदी है. वे जैव विविधता वाले इलाक़ों में रहते हैं लेकिन मोरालेस ने ध्यान दिलाया कि पूंजीवादी लालच ने उन्हें दुनिया के सबसे ग़रीब 15 फ़ीसदी जनसंख्या में ला छोड़ा है. 

साभार-संयुक्त राष्ट्र संघ

https://news.un.org/hi/story/2019/02/1010662

बुधवार, 19 सितंबर 2018

14 सितंबर,2018 हिंदी दिवस



14 सितंबर,2018 हिंदी दिवस के अवसर पर विभिन्न प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिंदी के बारे में अनेक विद्वान लेखकों के विचार पढ़ने को मिले। कुछ हिंदी लेख साभार संकलित करके आपके सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।
हिंदी दिवस आज, जानिए इस बारे में कुछ खास बातें- इन हस्तियों का भाषा प्रसार में बड़ा योगदान
एक अनुमान के मुताबिक, देश की 70 फीसदी आबादी बातचीत के लिए हिंदी का ही उपयोग करती है।
 देशभर में हिंदी दिवस के अवसर पर केंद्र व राज्य सरकारों की ओर से विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर हिंदी साहित्यकारों व हिंदी भाषियों को सम्मानित किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक, देश की 70 फीसदी आबादी बातचीत के लिए हिंदी का ही उपयोग करती है। एक वक्त था जब हिंदी का हमारे ही देश के कुछ हिस्सों में विरोध किया जाता था लेकिन बदलते वक्त के साथ इसकी आवश्यकता और महती होती चली गई। आज देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो जहां हिंदी सहजता से बोली या समझी ना जाती हो।
दुनिया के कई देशों में हिंदी का प्रसार
- भारत के अलावा मॉरीशस, फिलीपींस, नेपाल, फिजी, गुयाना, सुरिनाम, त्रिनिदाद, तिब्बत और पाकिस्तान में कुछ परिवर्तनों के साथ ही सही लेकिन हिंदी बोली और समझी जाती है। एक अनुमान के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 80 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं। हिंदी केवल हमारी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा ही नहीं अपितु यह राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का प्रतीक है। राष्ट्रभाषा हिंदी हमें भावनात्मक एकता के सूत्र में पिरोती है। आज विश्व में हिंदी बोलने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। हिंदी को 1949 में राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू ने हिंदी दिवस मनाने का फैसला किया था। 14 सितंबर 1953 को वो पहला अवसर आया जब हिंदी दिवस मनाया गया।
हिंदी फिल्मों का योगदान
- आप दुनिया के किसी भी हिस्से में जाएं जहां भारतीय मूल या भारतीय नागरिक हों। वहां आपको हिंदी मिलेगी। दरअसल, विदेश में रह रहे भारतीय ही नहीं दूसरे देशों के लोग भी बॉलीवुड यानी हिंदी फिल्मों के शौकीन होते हैं। 
राज कपूर के दौर में तो रूस में हिंदी का ज़बरदस्त प्रभाव देखा गया। वहां कई संगीत केंद्र ऐसे स्थापित हुए जो हिंदी फिल्मों और इसके संगीत को बढ़ावा देने लगे। पाकिस्तान में तो कई बार बुद्धिजीवियों के बीच इस बात को लेकर बहस छिड़ चुकी है कि हिंदी फिल्मों की वजह से पाकिस्तान में उर्दू को नुकसान हुआ। अमिताभ बच्चन और कई बड़े कलाकार ऐसे हैं जो विशुद्ध हिंदी का उपयोग करते हैं।
(साभार- दैनिक भास्कर 14-09-2018  https://www.bhaskar.com/breaking-news/hindi-diwas-news-and-updates-5957006.html)

नई दिल्‍ली: आज हिन्‍दी दिवस (Hindi Diwas) है. भारत में हर साल 14 सितंबर (14 September) को हिन्‍दी दिवस मनाया जाता है. हिन्‍दी भारत की राजभाषा है, जिसे आधिकारिक रूप से आजादी के दो साल बाद मान्‍यता मिली. जी हां, 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में एक मत से यह फैसला लिया गया कि भारत की राजभाषा हिन्‍दी होगी. इसके बाद हिन्‍दी के प्रचार-प्रसार और जनमानस की मान्‍यता के लिए वर्धा स्थित राष्‍ट्र भाषा प्रचार समित‍ि ने हिन्‍दी दिवस मनाने का अनुरोध किया. इसके बाद 14 सितंबर 1953 से पूरे भारत में हर साल 14 सितंबर को हिन्‍दी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. हिन्‍दी दिवस पर स्‍कूलों, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों में अनेक कार्यक्रमों जैसे कि निबंध, कविता पाठ और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है. यही नहीं सरकारी दफ्तरों में हिन्‍दी पखवाड़ा भी मनाया जाता है. आपको बता दें कि हिन्‍दी दिवस के अलावा हर साल 10 जनवरी को विश्‍व हिन्‍दी दिवस भी मनाया जाता है.
क्‍या है हिन्‍दी दिवस का इतिहास
वैसे तो भारत विभिन्‍न्‍ताओं वाला देश है. यहां हर राज्‍य की अपनी अलग सांस्‍कृतिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पहचान है. यही नहीं सभी जगह की बोली भी अलग है. इसके बावजूद हिन्‍दी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है. यही वजह है कि राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने हिन्‍दी को जनमानस की भाषा कहा था. उन्‍होंने 1918 में आयोजित हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन में हिन्‍दी को राष्‍ट्र भाषा बनाने के लिए कहा था.
आजादी मिलने के बाद लंबे विचार-विमर्श के बाद आखिरकार 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिन्‍दी को राज भाषा बनाने का फैसला लिया गया. भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्‍याय की धारा 343 (1) में हिन्‍दी को राजभाषा बनाए जाने के संदर्भ में कुछ इस तरह लिखा गया है, 'संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा.'
हालांकि हिन्‍दी को राजभाषा बनाए जाने से काफी लोग खुश नहीं थे और इसका विरोध करने लगे. इसी विरोध के चलते बाद में अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दे दिया गया.
हिन्‍दी दिवस क्‍यों मनाया जाता है?
भारत सालों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा. इसी वजह से उस गुलामी का असर लंबे समय तक देखने को मिला. यहां तक कि इसका प्रभाव भाषा में भी पड़ा. वैसे तो हिन्‍दी दुनिया की चौथी ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्‍यादा लोग बोलते हैं लेकिन इसके बावजूद हिन्‍दी को अपने ही देश में हीन भावना से देखा जाता है. आमतौर पर हिन्‍दी बोलने वाले को पिछड़ा और अंग्रेजी में अपनी बात कहने वाले को आधुनिक कहा जाता है.


जानिए हिन्‍दी से जुड़े रोचक तथ्‍य
इसे हिन्‍दी का दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि इतना समृद्ध भाषा कोष होने के बावजूद आज हिन्‍दी लिखते और बोलते वक्‍त ज्‍यादातर अंग्रेजी भाषा के शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया जाता है. और तो और हिन्‍दी के कई शब्‍द चलन से ही हट गए. ऐसे में हिन्‍दी दिवस को मनाना जरूरी है ताकि लोगों को यह याद रहे कि हिन्‍दी उनकी राजभाषा है और उसका सम्‍मन व प्रचार-प्रसार करना उनका कर्तव्‍य है. हिन्‍दी दिवस मनाने के पीछे मंशा यही है कि लोगों को एहसास दिलाया जा सके कि जब तक वे इसका इस्‍तेमाल नहीं करेंगे तब तक इस भाषा का विकास नहीं होगा.
हिन्‍दी दिवस कैसे मनाया जाता है?
हिन्‍दी दिवस के मौके पर कई कार्यक्रमों का आयोजन होता है. स्‍कूलों, कॉलेजों और  शैक्षणिक संस्‍थानों में निबंध प्रतिया,  वाद-विवाद प्रतियोगता, कविता पाठ, नाटक, और प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा सरकारी दफ्तरों में हिन्‍दी पखवाड़े का आयोजन होता है. यानी कि 14 सितंबर से लेकर अगले 15 दिनों तक सरकारी दफ्तों में विभिन्‍न प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं. यही नहीं साल भर हिन्‍दी के विकास के लिए अच्‍छा काम करने वाले सरकारी दफ्तरों को पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित किया जाता है.
हिन्‍दी से जुड़ी 8 दिलचस्प बातें, जिन्हें पढ़कर आपको गर्व होगा
1. हिन्‍दी विश्‍व में चौथी ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्‍यादा लोग बोलते हैं. ताजा आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान में भारत में 43.63 फीसदी लोग हिन्‍दी भाषा बोलते हैं. जबकि 2001 में यह आंकड़ा 41.3 फीसदी था. तब 42 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 के बीच हिन्दी बोलने वाले 10 करोड़ लोग बढ़ गए. साफ है कि हिन्दी देश की सबसे तेजी से बढ़ती भाषा है.
इन्‍हीं बातों की वजह से हिन्‍दी को सलाम करती है दुनिया 
2. इसे आप हिन्‍दी की ताकत ही कहेंगे कि अब लगभग सभी विदेशी कंपनियां हिन्‍दी को बढ़ावा दे रही हैं. यहां तक कि दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन गूगल में पहले जहां अंग्रेजी कॉनटेंट को बढ़ावा दिया जाता था वही गूगल अब हिन्‍दी और अन्‍य क्षेत्रीय भाषा वाले कॉन्‍टेंट को प्रमुखता दे रहा है. हाल ही में ई-कॉमर्स साइट अमेजन इंडिया ने अपना हिन्दी ऐप्‍प लॉन्च किया है. ओएलएक्स, क्विकर जैसे प्लेटफॉर्म पहले ही हिन्दी में उपलब्ध हैं. स्नैपडील भी हिन्दी में है.
3. इंटरनेट के प्रसार से किसी को अगर सबसे ज्‍यादा फायदा हुआ है तो वह हिन्‍दी है. 2016 में डिजिटल माध्यम में हिन्दी समाचार पढ़ने वालों की संख्या 5.5 करोड़ थी, जो 2021 में बढ़कर 14.4 करोड़ होने का अनुमान है.
4. 2021 में हिन्दी में इंटरनेट उपयोग करने वाले अंग्रेजी में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों से अधिक हो जाएंगे. 20.1 करोड़ लोग हिन्दी का उपयोग करने लगेंगे. गूगल के अनुसार हिन्दी में कॉन्‍टेंट पढ़ने वाले हर साल 94 फीसदी बढ़ रहे हैं, जबकि अंग्रेजी में यह दर सालाना 17 फीसदी है.
5. अभी विश्‍व के सैंकड़ों व‍िश्‍वविद्यालयों में हिन्‍दी पढ़ाई जाती है और पूरी दुनिया में करोड़ों लोग हिन्‍दी बोलते हैं. यही नहीं हिन्‍दी दुनिया भर में सबसे ज्‍यादा बोली जाने वाली पांच भाषाओं में से एक है.

6. दक्षिण प्रशान्त महासागर के मेलानेशिया में फिजी नाम का एक द्वीप है. फिजी में हिन्‍दी को आधाकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है. इसे फि‍जियन हिन्दी या फि‍जियन हिन्दुस्तानी भी कहते हैं. यह अवधी, भोजपुरी और अन्य बोलियों का मिलाजुला रूप है.
7. पाकिस्‍तान, नेपाल, बांग्‍लादेश, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, न्‍यूजीलैंड, संयुक्‍त अरब अमीरात, युगांडा, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद, मॉरिशस और साउथ अफ्रीका समेत कई देशों में हिन्‍दी बोली जाती है.
8. साल 2017 में ऑक्‍सफोर्ड डिक्‍शनरी में पहली बार 'अच्छा', 'बड़ा दिन', 'बच्चा' और 'सूर्य नमस्कार' जैसे हिन्‍दी शब्‍दों को शामिल किया गया.
( साभार- एन.डी.टी.वी. नई दिल्ली https://khabar.ndtv.com/news/career/hindi-diwas-2018-why-we-celebrate-hindi-diwas-on-14-september-know-history-and-facts-1916402)

14 सितंबर, 1949 के दिन हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला था. तब से हर साल यह दिन 'हिंदी दिवस' के तौर पर मनाया जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि हिंदी दिवस क्यों मनाया जाता है? इसके पीछे एक वजह है. आइए जानते हैं...
साल 1947 में जब अंग्रेजी हुकूमत से भारत आजाद हुआ तो उसके सामने भाषा को लेकर सबसे बड़ा सवाल था. क्योंकि भारत में सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती है. 6 दिसंबर 1946 में आजाद भारत का संविधान तैयार करने के लिए संविधान का गठन हुआ. संविधान सभा ने अपना 26 नवंबर 1949 को संविधान के अंतिम प्रारूप को मंजूरी दे दी. आजाद भारत का अपना संविधान 26 जनवरी 1950 से पूरेदेश में लागू हुआ.
लेकिन भारत की कौन सी राष्ट्रभाषा चुनी जाएगी ये मुद्दा काफी अहम था. काफी सोच विचार के बाद हिम्दी और अंग्रेजी को नए राष्ट्र की भाषा चुना गया. संविधान सभा ने देवनागरी लिपी में लिखी हिन्दी को अंग्रजों के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था. 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी.
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि इस दिन के महत्व देखते हुए हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाए. बतादें पहला हिंदी दिवस 14 सितंबर 1953 में मनाया गया था.
अंग्रेजी भाषा को लेकर हुआ विरोध
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी. अंग्रेजी भाषा को हटाए जाने की खबर पर देश के कुछ हिस्सों में विरोध प्रर्दशन शुरू हो गया था. तमिलनाडू में जनवरी 1965 में भाषा विवाद को लेकर दंगे हुए थे.
जनमानस की भाषा हैं हिन्दी
साल 1918 में महात्मा गांधी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था. इसे गांधी जी ने जनमानस की भाषा भी कहा था.
(साभार आजतक -https://aajtak.intoday.in/education/story/hindi-diwas-2018-why-we-celebrate-national-hindi-diwas-tedu-1-1028471.html)
भारत की आजादी से पहले यह एक बड़ा मुद्दा था कि आज़ाद भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी? मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच बढ़ती दरार का एक बड़ा कारण भाषा भी था. उत्तर भारत में लोगों की यह धारणा बन रही थी कि हिंदी, हिंदुओं की और उर्दू, मुस्लिमों की भाषा है. हालांकि बड़ी संख्या तब तक उर्दू लिपि जानने वालों की ही थी. लोग उर्दू में ही लिखा करते थे.

इस बीच हिंदी की देवनागरी लिपि का प्रचार और चलन दोनों ही बढ़ रहा था. ऐसी हालत में महात्मा गांधी के सामने भी यह सवाल बार-बार आता था कि आजाद भारत की भाषा क्या होगी? भारत वापस आने से लेकर देश की आजादी के वक्त तक महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर जो कुछ कहा हम आपको बता रहे हैं.

इंदौर में गांधी ने की थी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग
भारत लौटने के कुछ ही वक्त बाद 1918 में महात्मा गांधी ने इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में कहा था, "जैसे ब्रिटिश अंग्रेजी में बोलते हैं और सारे कामों में अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं. वैसे ही मैं सभी से प्रार्थना करता हूं कि हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का सम्मान अदा करें. इसे राष्ट्रीय भाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य को निभाना चाहिए."

महात्मा गांधी ने इसके बाद पांच 'हिंदी दूत' उन राज्यों में भेजे, जहां पर इस भाषा का ज्यादा प्रचलन नहीं था. इन पांच दूतों में महात्मा गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी भी एक थे. ये पांच हिंदी दूत हिंदी के प्रचार के लिए सबसे पहले तत्कालीन मद्रास स्टेट पहुंचे. जो आज का तमिलनाडु है.

कोर्ट की सुनवाई में भी गांधी चाहते थे हिंदी का प्रयोग
महात्मा गांधी से जब प्रश्न किया गया कि आधिकारिक रूप से अंग्रेजी का प्रयोग किया जा रहा है और इसे बदलने की बजाए ऐसे ही जारी रखा जाये क्योंकि लोग इस भाषा को भी भारत में समझने लगे हैं. इस सवाल पर महात्मा गांधी का कहना था कि अंग्रेजी से बेहतर होगा कि हिन्दुस्तानी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाया जाए क्योंकि यह हिंदू- मुसलमान, उत्तर-दक्षिण को जोड़ती है. महात्मा गांधी का यह भी मानना था कि हिंदी का प्रयोग केवल बोलचाल और देश की आधिकारिक भाषा के तौर पर ही नहीं बल्कि न्यायालयों में सुनवाई के लिए भी किया जाना चाहिए.

इस बारे में वे कहते थे, "कोर्ट की सुनवाई के दौरान राष्ट्रीय भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है, लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया पूरी तरह से समझ नहीं आएगी. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं को कोर्ट में जरूर आगे बढ़ाना चाहिए. अपने भाषण की समाप्ति पर महात्मा गांधी ने कहा था, मेरा विनम्र लेकिन दृढ़ विचार है कि जब तक हम हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिला देते और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को उनका जरूरी महत्व नहीं दिला देते, तब तक स्वराज्य की सारी बातें अर्थहीन रहेंगी."

गांधी नहीं चाहते थे कि जिस 'हिंदी' को हम आज जानते हैं वह राष्ट्रभाषा बने
10 अगस्त, 1947 को प्रकाशित अपने एक लेख में महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय भाषा के बारे में लिखा था, "दिल्ली में मैं रोज ही हिंदुओं और मुस्लिमों से मिलता हूं. जिनमें हिंदुओं की संख्या ज्यादा है. इनमें से ज्यादातर एक ही भाषा बोलते हैं जिसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं, फारसी और अरबी के भी (शब्द) ज्यादा नहीं होते. इनकी बड़ी संख्या को देवनागरी लिपि नहीं आती है. वे मुझे अलग सी अंग्रेजी में (चिट्ठी) लिखते हैं. और जब मैं उन्हें विदेशी भाषा में न लिखने को कहता हूं, वे उर्दू लिपि में लिखते हैं. तो अगर ऐसे में यह अनेक भाषाओं की खिचड़ी 'हिंदी' हो और इसकी लिपि केवल देवनागरी हो, इन हिंदुओं की क्या दुर्दशा होगी?"

इसी लेख में महात्मा गांधी ने यह भी लिखा था, "लाखों भारतीय जो गांवों में रहते हैं, उन्हें किताबों से कोई लेना-देना नहीं है. वे हिंदुस्तानी बोलते हैं, जिसे मुस्लिम उर्दू लिपि में लिखते हैं और हिंदू उर्दू या नागरी लिपि में लिखते हैं. इसलिए हमारा और आपका यह कर्तव्य है कि हम दोनों ही लिपियां सीखें."
संविधान सभा में भी हिंदी पर गांधी के विचारों का हुआ था कई बार जिक्र
महात्मा गांधी के इसी लेख का जिक्र करते हुए संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने 14 सितंबर, 1949 को भाषा के सवाल पर बहस के दौरान यह प्रस्ताव रखा था कि संविधान सभा को हिंदी को राजभाषा के तौर पर स्वीकार करते हुए उसकी उर्दू और देवनागरी दोनों ही लिपियों में राज्य की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार करना चाहिए. हालांकि ऐसा हो न सका और संविधान ने देवनागरी में ही हिंदी को आधिकारिक भाषा माना.
हिंदी के राजभाषा बनने के बाद राजेंद्र प्रसाद ने किया था महात्मा गांधी को याद
संविधान सभा में 14 सितंबर, 1949 को जब हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला, राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के सदस्य के तौर पर हिंदी के लिए किए गए महात्मा गांधी के प्रयासों को याद किया. उन्होंने कहा, "मैं दक्षिण भारत के लिए एक शब्द कहना चाहूंगा. 1917 में जब महात्मा गांधी चंपारण गये थे, मुझे उनके साथ काम करने का अवसर मिला. और जब उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार करने के बारे में सोचा और तय किया कि स्वामी सत्यदेव और अपने प्रिय बेटे देवदास गांधी को इस काम को शुरू करने को कहा.
राजेंद्र प्रसाद ने 1918 में इंदौर में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन में इस हिंदी प्रचार कार्यक्रम को एक प्रमुख कार्यक्रम बताया था. उन्होंने कहा था, "मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं इस कार्यक्रम से पिछले 32 सालों में अच्छे से जुड़ा रहा हूं लेकिन मैं दक्षिण भारत में एक कोने से दूसरे कोने तक गया हूं और वहां पर जैसे लोगों की महात्मा गांधी के इस आह्वान के प्रति प्रतिक्रिया रही है, उसे देखकर मेरे दिल को बहुत खुशी होती है."

नोट : उर्दू भाषा की लिपि को 'नस्तलिक' कहा जाता है. लेकिन महात्मा गांधी ने अपने लेखों में 'उर्दू लिपि' शब्द ही लिखा है. इसलिए इस लेख में भी बार-बार 'उर्दू लिपि' शब्द का ही प्रयोग हुआ है.
(साभार- न्यूज 18 हिंदी -https://hindi.news18.com/news/knowledge/jack-ma-of-alibaba-rejected-in-30-jobs-before-found-own-company-1516295.html)
हर वर्ष हिंदी दिवस आते ही उसको लेकर चिंताएं प्रकट होने लगती हैं। उसके प्रसार और सम्मान के लिए तमाम संकल्प किए जाते हैं। लेकिन सवाल है कि हिंदी के समक्ष वास्तव में कौन-सी समस्याएं और चुनौतियां हैं, जो इसे अपेक्षित सम्मान और प्रसार की दिशा में बाधक हैं? इसके लिए सरकारी और व्यक्तिगत स्तर पर क्या प्रयास हो रहे हैं? इस दिशा में और प्रभावी परिणाम हासिल करने के लिए क्या किए जाने की आवश्यकता है? बीते अगस्त में मॉरीशस में संपन्न हुए ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी इन सवालों पर चर्चा हुई। यहां प्रस्तुत है सम्मेलन में सम्मिलित हुए तीन हिंदी साहित्यकारों के विचार...

युवाओं पर है हिंदी की समृद्धि का दायित्व

चित्रा मुद्गल

भाषा का ताल्लुक केवल अभिव्यक्ति से नहीं होता है। यह हमारी सोच, विचारधारा, बुद्धिमत्ता, चेतना और मनोभावों को भी प्रकट करती है। भाषा अपने समाज को अभिव्यक्त करती है और उसे प्रभावित भी करती है। भाषा का मूल तत्व सांस्कृतिक संवेदना होती है। इस लिहाज से हिंदी पूरे भारतवर्ष को जोड़ने वाली भाषा है। यह केवल काम-काज की राजभाषा मात्र नहीं है। हमें इस बात को समझना होगा। कुछ समय पूर्व मॉरीशस में संपन्न हुए 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में शामिल होते हुए मैंने यह महसूस किया कि युवा पीढ़ी को हिंदी से जोड़ने के लिए उसके डिजिटलीकरण के भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। तमाम सॉफ्टवेयर तैयार किए जा रहे हैं।
यह देखकर और जानकर अच्छा लगा कि अब हिंदी भी कागज, कलम और किताब से निकलकर स्क्रीन पर आ गई है। निश्चित ही ये प्रयास सराहनीय हैं। लेकिन अब युवाओं पर बड़ी जिम्मेदारी है कि तकनीक के इस्तेमाल से हिंदी भाषा को समृद्ध करें और इसके विकास में अपना योगदान दें। लेकिन इसके पूर्ण मशीनीकरण के साथ ही इसकी गरिमा और सांस्कृतिक संवेदना का भी ध्यान रखना होगा, क्योंकि हिंदी केवल एक भाषा नहीं, इस राष्ट्र की संस्कृति और पहचान की वाहक भी है। वहां यह जानकर भी अच्छा लगा कि संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दिलाने के लिए सरकार प्रयास कर रही है। यह एक स्वागत योग्य कदम है। 
हिंदी सम्मेलन में शामिल होते हुए मैंने यह भी महसूस किया कि वहां कई ऐसे लोग भी पहुंच गए थे, जिन्हें इस सम्मेलन की गंभीरता से कोई लेना-देना नहीं था। इसके बजाय विदशों से आए कई हिंदी विद्वान मुझे ज्यादा गंभीर और सम्मेलन से जुड़े हुए लगे। एक रूसी हिंदी विद्वान ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए सवाल किया कि हिंदी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का इतना इस्तेमाल क्यों किया जाता है? किसी भाषा को समृद्ध करने के लिए उसी भाषा के शब्दों के नए प्रयोग किए जाने चाहिए, न कि दूसरी भाषाओं के शब्द उधार लेने चाहिए।
मुझे सुखद अचरज हुआ कि एक विदेशी हिंदी प्रेमी को इस भाषा को लेकर इतनी चिंता है। हम सभी हिंदी लेखकों, विद्वानों और पत्रकारों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अगर हमारे मन में हिंदी को लेकर इतनी चिंता और चेतना नहीं है तो हम इसे समृद्ध करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं कर सकते।  इसमें संदेह नहीं कि हमारा देश बहुत बड़ा है, यहां अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। हर प्रदेश की अपनी मातृ भाषा है। इसीलिए हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकृति मिलने की राह में चुनौती है।
जब किसी भाषा का प्रश्न मतपत्रों में बदल जाता है तो हम उसका सम्मान नहीं कर पाते हैं। ऐसे में भले ही हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में स्वीकृति मिल जाए लेकिन इसे अपने देश में सम्मान तभी मिलेगा, जब यहां की राजनीतिक सोच और नागरिकों की मानसिकता बदलेगी। हम दूसरों को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। हिंदी के विस्तार और सम्मान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की उदासीनता सर्वाधिक जिम्मेदार है। आजादी के 71 वर्ष बाद भी अगर हम हिंदी को राष्ट्र भाषा नहीं बना पाए तो इसमें कमी हमारी ही है। महात्मा गांधी ने आजादी से पहले ही कह दिया था कि केवल हिंदी ही हिंदुस्तान की राष्ट्र भाषा हो सकती है। लेकिन हमने उस दिशा में आवश्यक और गंभीर प्रयास नहीं किए। ऐसे सम्मेलनों का उद्देश्य भी तभी पूरा होगा।    

दयनीय नहीं है हिंदी की स्थिति

प्रेम जनमेजय 

बीते अगस्त में विश्व हिंदी सम्मेलन की धूम थी। जैसे भारतीय प्रजातंत्र में चुनाव की धूम होती है वैसी ही धूम हिंदी के प्रजातंत्र में विश्व हिंदी सम्मेलन की होती है। मैं भी इस सम्मेलन का हिस्सा बना पर व्यंग्यकार के रूप में नहीं अपितु प्रवासी संसार के जिज्ञासु के रूप में। मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन का विषय था, ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति।कुल आठ सत्रों में-लोक-संस्कृति, भाषा, फिल्म, प्रौद्योगिकी, संचार, बाल साहित्य, प्रवासी साहित्य आदि से जुड़े मुद्दों पर चर्चाएं की गईं। 10वें एवं 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में महत्वपूर्ण ये रहा कि चर्चाएं विस्तृत हुईं। पिछले कुछ सम्मेलनों में तो अधिकांश सत्रों में केवल रस्म अदायगी के रूप में एक डेढ़ मिनट के लिए मंच को सुशोभित करने तथा विश्व हिंदी सम्मेलन में सहभागिता का इतिहास रचने के सुअवसर प्रदान किए गए थे।
11वें सम्मेलन में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि पिछले सम्मेलन में विद्वानों द्वारा की गई अनुशंसाओं को रद्दी की टोकरी में न डाला जाए। अपितु अनुशंसा पालन समिति इसकी कार्रवाई की रपट प्रस्तुत करे और ऐसा इस बार हुआ भी। अन्यथा अतीत में जहां विश्व हिंदी सम्मेलन सातवें के बाद आठवें से केवल अंक के कारण जुड़ते थे, वहीं इस बार वे कार्रवाई के मकसद से जुड़े। भविष्य में आगामी विश्व हिंदी सम्मेलन कोई भी करे, यदि इस कदम को उसका हिस्सा बनाया जाए तो चर्चाओं और अनुशंसाओं का महत्व होगा एवं वे रद्दी की टोकरी में जाने से बचेंगी।
मुझे प्रवासी संसारः भाषा ओर साहित्यसत्र में बीज वक्तव्य देना था। मेरी मुख्य चिंता थी कि प्रवासी संसार के इस सत्र में मॉरीशस के अधिकांश प्रवासी साहित्यकार नहीं हैं। क्या उनकी इस विषय पर कोई चिंता नहीं है। क्या हमने अपनी सांस्कृतिक, भाषाई और साहित्यिक धरोहर को बचाने के लिए युवा पीढ़ी को तैयार किया है? नहीं किया है। मॉरीशस के घरों में, हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या यदि 1972 में ढाई लाख से अधिक थी तो आज सात हजार भी नहीं हैं। ये गिरमिटिया देशों की समस्या नहीं है अपितु लंदन, अमेरिका, दुबई आदि देशों में बसे प्रवासियों की भी यही समस्या है। इसके लिए हमें पुलों का निर्माण करना होगा। 
सवाल यह भी है कि भारत में क्या हिंदी की स्थिति बेहतर हो रही है? भाषा का नवउपनिवेशीकरण हो रहा है। एक सोचे-सोचाए षड़यंत्र के तहत अखबारों और चैनलों की हिंदी भाषा को भ्रष्ट किया जा रहा है। हिंदी के लिए विपन्न, अक्षम, पुरातनपंथी एवं निर्बल देवनागरी लिपि को छोड़कर सरल, सहज, सस्ती, टिकाऊ, सुंदर एवं संपन्न रोमन लिपि अपनाने की नेक सलाह दी जा रही है। हिंदी की बढ़ती ताकत को देखते हुए उसे अशक्त करने की चालें चली जा रही हैं। विज्ञापनों की भाषा, समाचारों की भाषा, धारावाहिकों की भाषा और हिंदी फिल्मों से अपनी रोजी-रोटी, चलाने वाले बेचारे हीरो-हीरोइन की कब्जीयुक्त हिंदी-भाषा ने आपके कानों में अनेक प्रकार के रस घोले ही होंगे।
सच तो यह है कि भाषा हमारे सामाजिक स्तर का भी पर्याय बन गई है। अति संपन्न कॉलोनियों की भाषा, यहां तक उनके सेवकों की भी भाषा अंग्रेजी है और निम्न आय वर्गीय कॉलोनियों की भाषा हिंदी है। बेचारा मध्यवर्ग, वह तो इधर-उधर डोलता रहता है। कभी आपने संभ्रांत, पाश्चात्य परिधान में लिपटे व्यक्ति से हिंदी में बतियाने का साहस कभी किया है? आपका बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है और उसका विज्ञान विषय कमजोर है तो आपको उसे हिंदी वाले स्कूल में भरती कराने का सुझाव दिया जाता है। कमजोर विज्ञान है और आपको सुझाव भाषा सुधारने का दिया जाता है। हिंदी दरिद्र नहीं है और न ही हिंदी की स्थिति दयनीय है। इसे दयनीय वे सिद्ध कर रहे हैं, जिनके इसे दयनीय रखने में अपने स्वार्थ सधते हैं। और वे ही अपना उत्पाद बनाने के लिए इसे समृद्धभी करते रहते हैं।

मानसिकता बदलने से मिलेगा हिंदी को सम्मान

राजेंद्र उपाध्याय

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आज के युवा वर्ग में और विशेषकर महानगरीय युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति लगाव और सम्मान कम हो रहा है। दरअसल, युवा पीढ़ी करियर को लेकर काफी सजग है। उन्हें अंग्रेजी माध्यम में ज्यादा अवसर दिखते हैं साथ ही उन्हें हिंदी के बजाय अंग्रेजी लेखकों की किताबें पढ़ना पसंद होता है। उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के लोग तो सीधे मानते हैं कि अगर कोई लेखक विद्वान है तो वह अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखता है। यानी एक वर्ग के लोग यह मानते हैं कि विद्वता का सीधा संबंध अंग्रेजी से ही होता है। मानो हिंदी लेखक चाहे कितना बड़ा विद्वान हो लेकिन एक खास वर्ग की नजर में उसका कोई मोल नहीं है।
यह बेहद खेद का विषय है कि अभी भी हिंदुस्तान में हिंदी को लेकर ऐसी मानसिकता बनी हुई है। जब तक यह मानसिकता हर वर्ग के लोगों में नहीं बदलेगी, हिंदी को अपेक्षित सम्मान नहीं मिलेगा। इस भाषा के प्रति युवा पीढ़ी में सम्मान तभी जगेगा, जब शिक्षा प्रणाली से लेकर नौकरी तक में इसकी आवश्यकता और महत्ता को स्थान मिलेगा। हर तरह की सरकारी नौकरी में हिंदी का एक अनिवार्य प्रश्नपत्र होना चाहिए। हिंदी के जरिए रोजगार के अवसर सृजित होने चाहिए। आजादी के पहले और उसके कुछ वर्ष बाद तक हिंदी लेखकों को काफी सम्मान मिला करता था। बहुत सी पत्रिकाएं हुआ करती थीं, जो लेखकों को उचित पारिश्रमिक दिया करती थीं।
यही वजह थी कि उस दौर में बहुत से लेखक पूर्णकालिक लेखन करके भी अपनी जीविकोपार्जन कर लेते थे। आज का हाल किसी से छिपा नहीं है। अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाएं पारिश्रमिक देती ही नहीं जो देती भी हैं तो नाम मात्र का। आज कोई हिंदी लेखक चाहे कि वह केवल लेखन के जरिए अपनी जीविका चला लेगा तो यह संभव नहीं है। ऐसे में हिंदी और हिंदी लेखकों के प्रति लगाव और सम्मान कैसे बढ़ेगाहालांकि सारा परिदृश्य अंधकारमय नहीं है। हिंदी की व्यापकता भी कुछ मायनों में बढ़ रही है।
हिंदी में बेशुमार अखबार निकल रहे हैं। उत्तर भारत में इनका प्रसार बढ़ भी रहा है। फिल्में, सीरियल्स और विज्ञापन  भी हिंदी में खूब बन रहे हैं, काफी बड़ा वर्ग इन्हें पसंद करता है। मैं समझता हूं कि देवनागरी लिपि के प्रसार के लिए हिंदी को संकीर्णता से थोड़ा उबरना होगा। दूसरी भाषाओं के प्रति सहिष्णु होने की भी जरूरत है। इस क्रम में बीते अगस्त माह में मॉरीशस में संपन्न 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के डिजिटलीकरण की दिशा में बढ़ते कदम के बारे में बहुत कुछ नया सामने आया।
मालूम पड़ा कि किस तरह से हिंदी अब डिजिटल रूप में हर किसी के लिए सहज होती जा रही है। इस लिहाज से हिंदी के प्रसार और उसकी स्वीकृति में यह बहुत अच्छा कदम माना जा सकता है। भारत सरकार की सी-डैक जैसी संस्थाएं हिंदी को डिजिटलाइज करने की दिशा में बहुत से नए सॉफ्टवेयर तैयार कर रही हैं ताकि अधिक से अधिक  युवा पीढ़ी इससे जुड़ सके। जहां तक ऐसे बड़े आयोजनों को और सार्थक और प्रभावी बनाने की बात है तो मेरा मानना है कि ऐसे सम्मेलनों को राजनीति से थोड़ा दूर रहना चाहिए।
यह हिंदी सेवियों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी के विद्वानों और हिंदी साहित्यकारों का सम्मेलन होता है तो इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप कम होना चाहिए। इसके साथ ही हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकारों पर साहित्य अकादमी ने जो डॉक्यूमेंट्रीज बनाई हैं, उन्हें भी वहां दिखाना चाहिए, ताकि विदेशी हिंदी प्रेमियों को उन्हें जानने का मौका मिले। मेरा यह भी मानना है कि ऐसे सम्मेलन देश के बजाय विदेश में ही होने चाहिए, इससे उस देश के लोगों को भी हिंदी के बारे में जानने और समझने का अवसर मिलेगा, इसको और व्यापकता मिलेगी। विदेश में रहने वाले हिंदी शिक्षकों और विद्वानों को अनुदान देना चाहिए ताकि और लोग प्रोत्साहित हों।
(साभार- दैनिक हरिभूमि-https://www.haribhoomi.com/opinion/hindi-diwas-2018-14th-september-special-steps-between-the-challenges-of-hindi)

'युवाओं में कम होता हिन्दी के प्रति लगाव'

आशीष तिवारीनवभारत टाइम्स | Updated:Sep 14, 2018, 06:30AM IST
एनबीटी, लखनऊ : मातृभाषा होने के बावजूद लोगों में हिन्दी के प्रति लगाव कम होता जा रहा है। यह एक चिंता का विषय है। राष्ट्रभाषा के विकास के बिना देश का विकास नहीं हो सकता। एक ओर हिन्दी की रचनाएं धूल खा रही हैं, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी की किताबें हाथों-हाथ बिक रही हैं। दरअसल, खासकर युवा वर्ग में हिन्दी पढ़ने और लिखने की चाह खत्म होती जा रही है। अगर ऐसा ही होता रहा तो धीरे-धीरे हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी विलुप्त हो जाएगी। समझना होगा कि हिन्दी केवल एक भाषा नहीं बल्कि देश की अखंडता का सूत्र है। हिन्दी दिवस पर लखनऊ के साहित्यकारों से बातचीत के अंश।
हिन्दी हमारी प्रथम भाषा है, अफसोस यह है कि अब हिन्दी साहित्य को पहले जैसे पाठक नहीं मिल रहे। युवा तबका हिन्दी साहित्य से पूरी तरह अनभिज्ञ है।
- डॉ. रंगनाथ मिश्रा, कवि एवं वरिष्ठ साहित्यकार
हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए रचनाकारों को हिन्दी भाषा में लेखन करने की ज़रूरत है।
- विजय कुमारी मौर्या, हिन्दी कवियित्री और उपन्यासकार
हिन्दी भाषा हमारा सम्मान है, सामाजिक एकता के लिए हिन्दी को अपनाना बहुत जरूरी है।
- महेश चंद्र द्विवेदी, रिटायर्ड डीजीपी एवं कवि
आज के युवा पाठकों की रुचि अंग्रेजी साहित्य में अधिक है। युवाओं में हिन्दी का महत्व बढ़ाने के लिए साहित्यकारों के साथ ही सरकार को भी प्रयास करने चाहिए।
- नीरजा द्विवेदी, लेखिका
हिन्दी दिवस का इतिहास
14 सितंबर, 1949 में हिन्दी को मातृभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ था। इसी दिन भारत के संविधान में हिन्दी को देवनागरी लिपि के साथ भारतीय संविधान की औपचारिक भाषा माना गया था। 14 सितंबर, 1953 में पहली बार हिन्दी दिवस मनाया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में इसका जिक्र है।

अंग्रेेजी में कंफर्टेबल हैं, पर हिंदी सबको समझ आती है

अंग्रेजी बोलो, पर हिंदी जानना भी जरूरी अंग्रेजी में एक कहावत है- डु एज द रोमंस डु। यानीकि उस जगह की परंपरा को...

Bhaskar News Network | Sep 14, 2018, 02:00 AM IST
अंग्रेजी बोलो, पर हिंदी जानना भी जरूरी
 अंग्रेजी में एक कहावत है- डु एज द रोमंस डु। यानीकि उस जगह की परंपरा को फॉलो करो जहां आप रहते हैं या जहां आप जा रहे हैं। इसलिए मुझे ज्यादातर अंग्रेजी बोलनी पड़ती है। दूसरा मेरा बिजनेस और मिलना-जुलना उन लोगों से है, जो ज्यादातर अंग्रेजी में ही बात करते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि मुझे अपनी राष्ट्रीय भाषा हिंदी की अहमियत का नहीं पता। मैं तो अपने गांव का सरपंच रह चुका हूं और जानता हूं कि अपनी भाषा का क्या महत्व है। इसलिए हिंदी भी उतनी ही बोलता हूं। दूसरा हमारे चंडीगढ़ में तो फिर भी हालात बेहतर हैं। मेरे बेटा और बेटी अपने दादा दादी से हिंदी में ही बात करते हैं। इसलिए उन्हें हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाएं आती हैं। बाकी मेरा मानना है कि भारत ग्लोबल पावर बन रहा है तो हमें विदेशियों से बात करने के लिए अंग्रेजी आना जरूरी है। पर हमें ये धारणा बदलनी होगी कि अगर अंग्रेजी नहीं आती तो हम अपाहिज हैं। बल्कि हमें अंग्रेजी से पहले अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी को महत्व देना चाहिए। - करण गिल्होत्रा, चंडीगढ़, आंत्रप्रिन्योर 
पहले दिन से ही नहीं मिली हिंदी काे तवज्जो
  कॉन्वेंट स्कूल में स्टडी हुई। मैगजीन, नॉवल भी अंग्रेजी में ही पढ़े। अब सर्कल और रूटीन लाइफ में अंग्रेजी का इस्तेमाल हुआ तो जाहिर है यही लैंग्वेज बोलने की आदत होगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी भाषा का मुझे बिलकुल नहीं पता। लेकिन की यह सोच बन गई है कि जो लोग अंग्रेजी अच्छे से बोल लेते हैं तो उनका लेवल हिन्दी बोलने वालों की तुलना में ज्यादा है। इस सोच को भी बदलना होगा। दूसरा जब इंडिया में इंटरनेट आया, फोन आया, कंप्यूटर आया तो उसके कीबोर्ड से लेकर हर चीज अंग्रेजी में ही थी। हिन्दी और बाकी क्षेत्रीय भाषा में तो काफी देर के बाद फोंट आए। मुझे याद है फ्रेंच में जब इंटरनेट आया तो उन्होंने अंग्रेजी का नहीं फ्रेंच का इस्तेमाल किया। चाइना के लोग भी अपनी भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। जब कंप्यूटर, इंटरनेट, स्मार्ट फोन हमारे देश में आए तो सरकार को पहले दिन से ही अपनी मातृभाषा को तवज्जो देनी चाहिए थी। - सिंपल कौर, चंडीगढ़ , फैशन डिजाइनर 
आज हिंदी का दिन है। वही हिंदी जो अपने लोच के कारण बाकी सब भाषाओं को अपने में समेट कर आगे बढ़ती है। जो अपने लिए जगह रखते हुए दूसरी भाषाओं को भी स्पेस देती है। इसी हिंदी के बारे में आजकल ये सुनने को मिलता है-वी आर नॉट कंफर्टेबल विद हिंदी ...ऐसा क्यों है? क्या ये लोग सचमुच हिंदी नहीं जानते या फिर अंग्रेजी के चलन ने हिंदी को इनकी दुनिया से दूर कर दिया है। ट्राईसिटी के कुछ लोगों ने समने इसी बारे में बात की। इनमें से ज्यादातर का कहना था कि अंग्रेजी बोलनी पड़ती है क्योंकि लोग यही समझते हैं , वरना हिंदी सबको आती है। 
अशुद्ध हिंदी बोलने से अच्छा मैं बेहतर इंग्लिश बोलना ज्यादा प्रेफर करूंगा
  यह कड़वा सच है कि हमारी सोसाइटी में अंग्रेजी न बोलने वाले को लोग कम पढ़ा-लिखा मानते हैं। लोगों की मेंटेलिटी ऐसी हो गई है। शुरू में कई बार जब मैं किसी बड़े क्लाइंट से हिंदी में बात करता तो मुझे अमेच्योर समझा जाता। इसलिए अब अंग्रेजी बोलना ज्यादा प्रेफर करता हूं और अब इसकी आदत हो गई है। मैंने शुरु से ही इंग्लिश मीडियम में पढाई की है, इसलिए हिंदी पर पकड़ नहीं है। अशुद्ध हिंदी बोलने से अच्छा मैं अच्छी इंग्लिश बोलना प्रेफर करूंगा। - रोहित ठाकुर, सिनेमेटोग्राफर 
अंग्रेजी भाषा को सभी क्लासी मानते हैं
  किसी ने सही कहा है अंग्रेज चले गए पर अंग्रेजी यहां छोड़ गए। नतीजा यह हुआ कि यह हमारी मातृभाषा पर ही हावी हो गई। वही कल्चर आज भी देखने को मिलता है। इसीलिए हम भी वक्त के साथ माॅडर्न बन गए। हिंदी भाषीय होते हुए भी हम अंग्रेजी में बातें करने लगे हैं। यह मानने लगे कि अगर हम हिंदी में बात करेंगे तो सामने वाले के आगे हमारा स्तर कम लगेगा। खुद को असहज बता देते हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं। असल में यह सबकुछ सोसाइटी की वजह से होता है। जैसा रंग सोसाइटी का होता है वैसा ही बनना पड़ता है। आसानी से कह देते हैं कि हम असहज हैं हिंदी बोलने में। फिल्म देखने से लेकर आम बातचीत हिंदी में करते हैं मगर फोन पर अंग्रेजी बोलते हैं। इसलिए, क्योंकि अंग्रेजी को क्लासी माना जाता है। होना यह चाहिए कि जिस हिंदी भाषा की वजह से आपकी पहचान है उसे प्राइमरी भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अंग्रेजी और बाकी भाषाओं को सेकेंडरी लैंग्वेज के तौर पर रखना चाहिए। - अनुपमा चोपड़ा, चंडीगढ़, टीचर। 

दोस्तों से हिंदी में बात करना पसंद करती हूं
   इसमें कोई दो राय नहीं कि बचपन से हमने घर में हिंदी ही बोली है। अपने पेरेंट्स और दोस्तों से भी हिंदी में बात करते हैं। लेकिन हम सब का रुझान वेस्टर्न कल्चर की ओर ज्यादा हो गया है और हम अमेरिका को कॉपी करते हैं। इसलिए कई बार न चाहने के बावजूद अंग्रेजी में बात करनी पड़ती है। उसकी एक वजह ये है कि हमने जितनी भी मीनिंगफुल चीजें पढ़ी हैं, वो सब अंग्रेजी में हैं। उदाहरण के तौर पर- सन रिवॉल्वंस अराउंड अर्थ। अब इसे हिंदी में कैसे कहना है, मुझे समझ नहीं आता। प्रोफेशनल लाइफ में और बिजनेस की भाषा में जितनी भी टर्मिनोलॉजी है, उसे हमने अंग्रेजी में पढ़ा है। ऐसे में हम हिंदी में कैसे बात करें? जबकि मैं ये अच्छे से समझती हूं कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है और इसमें बात करने से हम अपनी भावनाआें को आसानी से बता पाते हैं। इसलिए मैं अपने दोस्तों से हिंदी में बात करना प्रेफर करती हूं और अपने फॉर्मल व प्रोफेशनल रिलेशंस में अंग्रेजी में बात करती हूं। यही समय ही मांग है। - प्रीतिका मेहता, को फाउंडर-माइंडबैट्रीज और टेडएक्स चंडीगढ़ की ऑर्गेनाइजर 
(साभार दैनिक भास्कर, चंडिगढ़- https://www.bhaskar.com/union-territory/chandigarh/news/confirmable-in-english-but-everyone-understands-hindi-020044-2718091.html)

एक भाषा नहीं, विविध रूपों से जब सजेगी हिंदी!

डॉ प्रवीण कुमार झा
चिकित्सक, नॉर्वे 
doctorjha@gmai- .com
नीदरलैंड के एक बुजुर्ग ने कहा, जिनके पूर्वज कभी गिरमिटिया बनकर सूरीनाम गये थे. मेरे अनुमान में वह भोजपुरी बोल रहे थे, लेकिन हिंदुस्तानीसे उनका क्या अर्थ था? मैं कौन सी भाषा बोल कर सुनाऊं
प्रवासी भारतीयों का वह वर्ग जो 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत से प्रवास करना शुरू हुआ, उनके लिए हिंदुस्तानीभाषा एक बड़ा समुच्चय है.गिरमिटिया मजदूर जब जहाजी बन कर गये, तो उनमें अवधी, भोजपुरी, मैथिली, ब्रजभाषा, बंगाली, पंजाबी, तमिल, तेलुगु सभी भाषाओं को बोलनेवाले लोग थे. उनकी एक सामूहिक भाषा जो बनी, वह उनके लिए हिंदुस्तानी थी. और इनके भी कई रूप बने जैसे फिजी हिंदुस्तानी, सरनामी हिंदुस्तानी, कैरिबियन हिंदुस्तानी इत्यादि. जैसे उन देशों में जातीय विभाजन नहीं था, भाषाई विभाजन भी नहीं था. एक ही सामूहिक भाषा- हिंदुस्तानी थी! 
प्रो चान चुनी ने मुझे कहा कि सूरीनाम के गिरमिटिया स्कूलों में हिंदुस्तानीभाषा ही पढ़ायी जाती थी, क्योंकि डच नीति थी कि उनकी आदतबनी रहे. 
इसकी वजह यह भी थी कि अगर वह डच पढ़-लिख गये, तो किसानी-मजदूरी न त्याग दें. म्यांमार के जेरावद्दी में भी हिंदी सिखाने का यही तर्क था. जैसे भारत में अंग्रेजी सीखकर सामाजिक सीढ़ी में ऊपर चढ़ना आसान हुआ, वैसे ही उन देशों में भी विदेशी भाषा सीखकर यह आसान होता. लेकिन भारत में हिंदुस्तानी/हिंदी की आदतबनी रहती, तो क्या भारत एक कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था ही रह जाती? यह तुलना ही निरर्थक लगती है, क्योंकि वह सूरीनाम था, यह भारत है. विडंबना यह है कि तर्क फिर भी सही बैठता है. भारत की सामाजिक और आर्थिक सीढ़ी वाकई अंग्रेजी बन गयी.
महात्मा गांधी के 1916 के बनारस भाषण को अगर याद करें, ‘एक ऐसा आजाद भारत, जहां अपने देश में अपनी भाषा बोली जाती है, विदेश की नहीं. ऐसी भाषा जो दिल को छू जाती है. ऐसी भाषा जो गरीब से गरीब समझ सके, और हम उनके बीच जा सकें. आज तो हमारी पत्नियां भी विमर्श में शामिल नहीं हो पाती.इस भाषण के सौ वर्ष बाद हिंदी की स्थिति कुछ बदली जरूर है, पर अब भी सफर लंबा है.
मैं वापस प्रवासी हिंदुस्तानी भाषा पर आता हूं कि इसका आज का स्वरूप क्या है. अब पहले प्रवासियों की चौथी-पांचवी पीढ़ी फिजी से जीबूटी तक फैली है. कनाडा के पंजाबी मूल के प्रवासी वंशजों से जब बात करता हूं, तो वह पंजाबी में बात करते हैं और मैं हिंदी में. इसमें अंग्रेजी के बिना हमारा वार्तालाप धारा-प्रभाव संभव होता है. 
गांधी ने बंबई के कांग्रेस अधिवेशन का जिक्र किया, जहां उनके हिंदुस्तानी भाषण को समझने में बंबइया या मराठी और गुजराती भाषीयों को समस्या नहीं हुई. गांधी की जो चिट्ठियां चंपारण या गिरमिटिया देश पहुंची, वह भी अंग्रेजी या गुजराती में न होकर हिंदुस्तानी में थी. वजह यह थी कि इन प्रदेशों की जनता हिंदुस्तानीही समझती थी.
एक विभाजन जो सतही तौर पर प्रवास में नजर आता है, वह है दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीय प्रवासियों में. लेकिन उनमें भी 19वीं और 20वीं सदी में प्रवास कर चुकी जमात हिंदुस्तानी ही बोलती रही. फ्रेंच उपनिवेश इनमें अपवाद हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा लगभग खत्म कर दी थी. 
आजादी के बाद जब भारत में भाषाई विभाजन मुखर हुआ, तो तमिल प्रदेश के लोग देश के बाहर भी तमिल ही बोलते रहे. ध्यान दें कि यह आजादी के बाद की शिक्षित पीढ़ी है. जो तमिल वर्ग बंबई या दिल्ली गया, वह तो हिंदी सीख ही गया. 
प्रवासी भारतीयों में, खास कर इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में, अगली पीढ़ी अंग्रेजी-भाषी बनती जा रही है. लेकिन, जिन देशों की भाषा अंग्रेजी नहीं, वहां हिंदी और भारतीय भाषाओं का उपयोग अब भी कुछ बेहतर है. यूरोप में जब मैं तमिल मित्रों के साथ फुटबॉल खेलता हूं, तो हमारी सामूहिक भाषा फिर से हिंदी बन जाती है. इसके मनोविज्ञान में ही भाषाई विकास का सूत्र है. हिंदी में एक मूलभूत क्षमता है कि वह भारतीय भाषा है. 
हां, हिंदी को समावेशी, सहयोगी और हिंदुस्तानीभाषा जरूर बनना होगा. भोजपुरी, मैथिली, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, राजस्थानी और अन्य भाषाओं को हिंदी से जोड़ना होगा. हर भाषा के शब्द उपयोग होते रहेंगे और विविध रूप से हम बोलते-लिखते रहेंगे. एक रूप, एक भाषा नहीं. विविध भाषा, विविध रूपों से जब सजेगी हिंदी! 
(साभार- दैनिक प्रभात खबर -https://www.prabhatkhabar.com/news/sampadkiya/story/1205109.html)
                                    
हिन्दी दिवस विशेष: अंग्रेजी की दासता से आजादी चाहते हैं तो उठाएं ये पांच कदम
नई दिल्ली, कार्यालय संवाददाता
·        Last updated: Fri, 14 Sep 2018 11:26 AM IST
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दुनियाभर में करीब 50 करोड़ लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। आप भी चाहें तो हिंदी को अपनी रोजमर्रा के कामकाज में स्थान दे सकते हैं। आज तकनीक ने हमें ऐसी सुविधाएं और विकल्प प्रदान कर दिए हैं जिनके माध्यम से हम हिंदी की बोर्ड का ज्ञान न होने पर भी हिंदी में टाइपिंग कर सकते हैं। कई कंपनियां फोन में ही हिंदी लैटिन की बोर्ड की सुविधा देती हैं। इससे हम अंग्रेजी में टाइप करके हिंदी शब्द लिख सकते हैं। इसके लिए गूगल प्लेस्टोर पर जाएं और वहां सर्च बार में हिंदी कीबोर्ड खोजें। इसके बाद परिणामस्वरूप ढेरों एप आ जाएंगे, जिनसे हिंदी टाइपिंग करना संभव है।
दिन की शुरुआत सुप्रभात के साथ
व्हाट्सएप पर अंग्रेजी में गुड मॉर्निंग लिखकर संदेश भेजने वाले लोग अपने संदेश को हिंदी में टाइप कर सकते हैं और सुप्रभात लिखकर दोस्तों और परिजनों को भेज सकते हैं।
कैसे करें
फोन की सेटिंग्स में इनपुट एंड लैग्वेंजके अंदर हिंदी का विकल्प मिलेगा, उसको क्लिक कर दें। अलग-अलग फोन हैंडसेट में सेटिंग्स के विकल्प अलग-अलग हो सकते हैं।
हिंदी में खोजें पसंदीदा रेस्टोरेंट और कारें खरीदारी
शाम के वक्त अगर आप अच्छे खाने की तलाश में हैं तो हिंदी में सिर्फ खाने का नाम लिखना होगा उसके बाद उससे संबंधित रेस्टोरेंट और दुकानों की सूची आ जाएगी। साथ ही अब ऑनलाइन खरीदारी की सुविधा भी हिंदी में उपलब्ध हो गई है।
कैसे करें
क्रोम ब्राउजर के सर्च बार में डोसा खाना हैलिखें। इसके बाद आस-पास मौजूद डोसा बनाने वाले रेस्टोरेंट की सूची आ जाएगी। ध्यान रखें कि फोन का लोकेशन फीचर ऑन हो। उधर, अमेजन ने अपनी वेबसाइट हिंदी में भी शुरू कर दी है।
हिंदी में भी मौजूद हैं कसरत के तौर-तरीके
अगर आप सुबह के वक्त जिम जाने से बचने के लिए यूट्यूब पर फिटनेस वीडियो देखते हैं तो चलिए आपको बता दें अब आप हिंदी में पढ़कर भी कसरत की जानकारी जुटा सकते हैं। आपके लिए गूगल प्लेस्टोर पर ढेरों एप मौजूद हैं। इन्हें खोजकर आप अपनी सेहत का ख्याल रख सकते हैं।
कैसे करें
गूगल प्लेस्टोर पर Gym Guide in Hindi एक ऐसा ही एप है। इसमें 100 से भी अधिक व्यायाम के बारे में बताया गया है। कसरत और उनके फायदे क्या हैं, उसके बारे में जानकारी दी गई है। आप अपनी जरूरत के मुताबिक व्यायाम का चयन कर सकते हैं।
रास्ते में जाम की जानकारी हिंदी में
आप कॉलेज या दफ्तर जाने से पहले ट्रैफिक का हाल जानने के लिए गूगल मैप्स का इस्तेमाल करते हैं तो अब इस काम में हिंदी आपकी मदद करेगी। हिंदी में लिखकर जगह खोज सकते हैं।
कैसे करें
इसके लिए फोन की सेटिंग में लैंग्वेज एंड इनपुट वाले विकल्प पर जाकर फोन की भाषा को हिंदी में तब्दील किया जा सकता है, उसके बाद गूगल मैप्स का परिणाम हिंदी भाषा में नजर आएगा।
बिना सॉफ्टवेयर कंप्यूटर में पाएं हिंदी
विंडोज में हिंदी कीबोर्ड ऑन करने के लिए आपको कंप्यूटर या लैपटॉप के कंप्यूटर पैनलमें Clock, Language, and Region में जाना होगा। इसके बाद Region and Language पर क्लिक कर दें। यहां ऊपर वाली पट्टी में चार नए बार (रेखाएं) दिखाई देंगे। पहले बार पर फॉर्मेट, दूसरे पर लोकेशन, तीसरे पर कीबोर्ड... और चौथे पर लैंग्वेंज एंड एडमिनिस्ट्रेटिव का विकल्प है। हिंदी कीबोर्ड पाने के लिए तीसरे नंबर के विकल्प कीबोर्डपर क्लिक करें। फिर चेंज कीबोर्ड पर क्लिक करें। एक और स्क्रीन बार खुलेगी, जिसमें जनरलपर क्लिक करना होगा। यहां जाने के बाद हिंदी (इंडिया) के विकल्प पर जाएं। इसमें आपके देवनागरी- इनक्रिप्टऔर हिंदी ट्रेडिशनलके बॉक्स दिखाई देंगे। किसी एक का चयन करें और अप्लाईपर क्लिक करें। इससे कंप्यूटर में हिंदी  कीबोर्ड का फीचर आ जाएगा। इसके लिए अलग फॉन्ट की जरूरत नहीं होगी। मंगल फॉन्ट माइक्रोसॉफ्ट की सभी विंडोज में डिफॉल्ट होता है।  
कीबोर्ड को अंग्रेजी से हिंदी में बदलना काफी आसान
माइक्रोसॉफ्ट के इस इनबिल्ट कीबोर्ड का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसे बड़ी ही आसानी से हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी में बदला जा सकता है। इसके लिए Shift+Alt बटन को एक साथ दबाना होता है। उदाहरण के तौर पर अगर आप हिंदी टाइपिंग कर रहे हैं तो Shift+Alt को दबाकर कीबोर्ड को अंग्रेजी में बदल सकते हैं। वहीं अगर आप अंग्रेजी में टाइपिंग कर रहे हैं तो Shift+Alt को दबाने से हिंदी में टाइपिंग शुरू कर कर सकते हैं। यह शॉर्टकट ऑनस्क्रीन कीबोर्ड पर भी लागू होते हैं

(साभार- दैनिक हिंदुस्तान -https://www.livehindustan.com/gadgets/story-if-you-want-freedom-from-english-language-then-do-these-five-steps-2172644.html)
हिन्दी का प्रश्न सिर्फ अपनी भाषा के प्रति मोह का नहीं है बल्कि एक नए किस्म के उपनिवेशवादी सोच के विरुद्ध लड़ने से भी है.
नई दिल्ली. कल हिन्दी दिवस है. दिनभर हिन्दी बोलने, पढ़ने, सुनने, बांचने, गाने के राग गाए जाएंगे. कुछ ही दिनों बाद फिर यह हमारे बातचीत की भाषा की स्थिति में आ जाएगी. हम हिन्दी में बोल लेंगे, बच्चों को हिन्दी सीखने की सीख दे देंगे और चंद किताबें पढ़ लेंगेबस हो गया. ऐसा नहीं है कि हिन्दी को लेकर ऐसी स्थिति कुछ दिनों में बनी है, बल्कि पिछले कई वर्षों तक अंग्रेजी को महिमामंडित करने और हिन्दी को कमतर-दर-कमतर साबित करने के अथकप्रयासों के बाद ही यह स्थिति आई है. इसलिए हिन्दी साहित्य के प्रख्यात विद्वान और आलोचक डॉ. नामवर सिंह (Dr. Namwar Singh) ने अपने एक लेख में हिन्दी को लेकर अनोखा व्यंग्य किया था. वर्ष 2002 में हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी अखबार राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट हस्तक्षेप में लिखे एक आलेख में डॉ. सिंह ने कहा था कि हिन्दी की स्थिति देखकर लगता है कि इसकी स्थिति राष्ट्रपतिजैसी है और अंग्रेजी को प्रधानमंत्रीकी हैसियत प्राप्त है. आज हिन्दी दिवस के अवसर पर पढ़िए डॉ. नामवर सिंह के इसी आलेख के प्रमुख अंश.
हिन्दी को त्रिशंकु बना दिया
आज हिन्दी की स्थिति त्रिशंकु की है. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उसे राष्ट्रभाषा बनाने की मांग हुई और स्वाधीन भारत की वह राजभाषा बना दी गई. जैसे त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग जाने के लिए कहा गया था, लेकिन उसे अचानक बीच में इस तरह रोक दिया गया कि न वह स्वर्ग जा सका और न धरती पर वापस आ सकता था, वैसे ही हिन्दी को बना दिया गया है. वह न तो राजभाषा का दर्जा पाकर स्वर्ग जा सकती है और न ही गिरकर धरती पर आ सकती है. कभी-कभी तो लगता है कि भाषा के क्षेत्र में हिन्दी की स्थिति भारत के राष्ट्रपतिजैसी है और अंग्रेजी को प्रधानमंत्रीकी हैसियत प्राप्त है. हिन्दी एक सम्मानजनक पद पर तो है, पर व्यवहार में दूसरे दर्जे पर है और सारे अधिकार अंग्रेजीके पास हैं. यह एक ऐसी हकीकत है जिसे बदलने का कोई तरीका फिलहाल दिखाई नहीं पड़ रहा है. ऐसे में हमारा समूचा देश दि्वभाषी होने के लिए अभिशप्त है.
त्रिभाषा फॉर्मूला आज भी प्रासंगिक
कोई भाषा किसी दूसरी भाषा का विकल्प नहीं हो सकती और मातृभाषा का तो कोई विकल्प हो ही नहीं सकता. यह माना गया है कि मां के दूध के साथ परिवार में जो भाषा सीखी जाती है, उसकी जगह कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती. जो भी कोई दूसरी भाषा सीखेगा, वह अतिरिक्तहोगी, ‘विकल्पनहीं. मैं तो कहता हूं कि जो अपनी बोली भूल जाता है वह कभी अच्छी हिन्दी न तो बोल पाता है और न लिख पाता है. इसलिए आज अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों को बोलियां सिखाने की जरूरत है, ताकि वे अच्छी हिन्दी सीख सकें. इस लिहाज से त्रिभाषाफॉर्मूला आज भी प्रासंगिक है, हर व्यक्ति को अपनी मातृभाषा के अलावा हिन्दी और अंग्रेजी का ज्ञान होना चाहिए.
नकली हिन्दीसे मिले मुक्ति
हिन्दी का नाम लेते ही उसके दो रूप सामने आते हैं. एक, राजभाषा हिन्दी और दूसरी, वह हिन्दी जो बोलचाल या हमारे लोकप्रिय साहित्य में दिखती है. अधिकांश विरोध राजभाषा को लेकर किया जाता है. मजाक उड़ाते हुए उसे नकली हिन्दीकी संज्ञा दी जाती है. चूंकि यह भाषा सरकार ने बनाई है और सरकारी सत्ता-प्रतिष्ठान पर अंग्रेजी वालों का दबदबा है, इसलिए राजभाषा के नाम पर जो भी लिखा जाता है, वह अंग्रेजी का अनुवाद होता है. अनुवादहमेशा मूलकी छाया ही होता है और इसलिए वह हमेशा नकली ही रहेगा. मुझे तो लगता है कि सत्ता-प्रतिष्ठान पर काबिज अंग्रेजीदां अफसरों ने ही राजभाषा को नकली बना दिया. सरकार को चाहिए कि वह राजभाषा को अंग्रेजी के अनुवाद से मुक्ति दिलाए.
व्यावसायिक हितों के टकराव से नुकसान
हिन्दी के विरुद्ध दुष्प्रचार सबसे ज्यादा उन माध्यमों ने किया, जिन पर अंग्रेजी का वर्चस्व है. हिन्दी विरोध से इनका व्यावसायिक हित जुड़ा है. यह अनायास नहीं है कि आज विश्व के जिन देशों में सबसे ज्यादा अंग्रेजी के लेखक पैदा हुए हैं, उनमें भारत सबसे ऊपर है. सिर्फ साहित्य ही नहीं बल्कि समाज, राजनीति, अर्थ और ज्ञान-विज्ञान के अन्य विषयों पर दुनिया के सारे बड़ेप्रकाशक भारतीय लेखकों की अंग्रेजी पुस्तकें छाप रहे हैं और भारत को इसका एक बड़ा बाजार बनाने के अभियान में जुटे हैं. 1947 के पहले भारत में अंग्रेजी में लिखने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती थी, लेकिन आज यह संख्या सैकड़ों पार कर चुकी है. मुल्कराज आनंद, राजाराव, आर.के. नारायण के बाद नाम तलाशना पड़ता था, लेकिन आज दर्जनों नाम ऐसे हैं जो अंग्रेजी के बड़े-बड़े पुरस्कार पा रहे हैं. पहले अंग्रेजी लिखने वाले भारतीय लेखकों के ज्यादातर प्रकाशक भारत के ही होते थे, लेकिन अब विदेशी प्रकाशकों की पैठ बढ़ गई है. चूंकि हिन्दी की लोकप्रियता को घटाए बगैर भारत में अंग्रेजी का बाजार नहीं बढ़ेगा, इसलिए देश का अंग्रेजीदां तबका हिन्दी का विरोध कर रहा है.

हिन्दी दिवस 2018: हिन्दी की शोकसभा में जब जुटे लेखक, शिक्षक, प्रकाशक और मंत्री
ग्लोबलाइजेशन का तर्क
एक यह भी तर्क दिया जा रहा है कि ग्लोबलाइजेशन के युग में अब राष्ट्र-राज्य की अवधारणाएं लगभग खत्म हो गई हैं. भारत भी अब एक राष्ट्र नहीं रहा. वह कई क्षेत्रीय अस्मिताओं का पुंज है. चूंकि एक राष्ट्र की बात ही खत्म हो रही है और उसके टुकड़े ज्यादा महत्वपूर्ण हो रहे हैं, तो फिर एक भाषा की जरूरत क्यों? हिन्दी को क्यों राष्ट्रभाषा माना जाए? जरूरत एक संपर्क भाषा की है जो अंग्रेजी ही हो सकती है. चूंकि यह अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा भी है, इसलिए इसे भारत की संपर्क भाषा बनाने से फायदा ही होगा. राष्ट्र-राज्य को समाप्त मानने वाली यह धारणा दुर्भाग्य से उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष अंग्रेजीदां बौद्धिकों की है जिन्होंने दो दशक पहले सबॉल्टर्न स्टडीजके नाम से इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक नए स्कूलकी स्थापना की थी. ये लोग अंग्रेजी में सोचते हैं और अंग्रेजी का ही खाते हैं. पश्चिम की नकल करते हैं और अपने समाज से कटकर वहीं के समाज में अपनी जड़ें तलाशते हैं. इस तबके ने जो नया दर्शन गढ़ा है उसे मैं खंड-खंड पाखंडकहता हूं. यह दर्शन न सिर्फ अंग्रेजी के वर्चस्व और पश्चिमी विचारधारा की रक्षा करता है बल्कि परोक्ष रूप से नवउपनिवेशवाद का हिमायती भी है. इसलिए हिन्दी का प्रश्न सिर्फ अपनी भाषा के प्रति मोह का नहीं है बल्कि एक नए किस्म के उपनिवेशवादी सोच के विरुद्ध लड़ने से भी है. (साभार इंडिया.कॉम)

हिंदी दिवस की क्या है सार्थकता
हिंदी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। इस दौरान राजभाषा यानी हिंदी सप्ताह भी आयोजित होता है। जबकि 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस का आयोजन होता है। इन अवसरों पर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम होते हैं। लेकिन क्या इस तरह के आयोजनों से हिंदी की लोकप्रियता बढ़ रही हैक्या हिंदी भारत में संपर्क और स्वाभिमान की भाषा बन पाएगी? ऐसे में हिंदी के महत्व, भविष्य और हिंदी की राह में खड़ी चुनौतियों को लेकर हिंदी से जुड़े विद्वान क्या सोचते हैं। यही जानने की कोशिश की सीआरआई संवाददाता अनिल आजाद पांडेय ने। इस मौके पर नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के चेयरमेन प्रो. बलदेव भाई शर्मा, शंघाई अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन विश्वविद्यालय में हिंदी के विजिटिंग प्रोफेसर नवीन लोहनी, पीकिंग विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर च्यांग चिंगख्वेई, बीजिंग विदेशी भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय के विकास कुमार सिंह, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट आशीष गोरे, हिंदी लेखन से जुड़ी अनीता और लंबे समय से हिंदी अध्यापन कार्य में लगी हिना चतुर्वेदी आदि के साथ चर्चा की।

 राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत के चेयरमेन प्रो. बलदेव भाई शर्मा के मुताबिक, गांधी जी कहा करते थे, देश के विभिन्न क्षेत्रों और हिस्सों को एक सूत्र में बांधने वाली भाषा हिंदी है। सभी भारतीय भाषाएं महत्वपूर्ण होते हुए भी संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी ही वह भाषा है जो पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधती है। जैसा कि हम जानते हैं कि 14 सितंबर को भारत में हिंदी दिवस मनाया जाता है। दरअसल 14 सितंबर,1949 को राजभाषा अधिनियम पारित हुआ था। उसमें यह व्यवस्था की गयी थी कि भारत में राज-काज की भाषा हिंदी होगी। लेकिन उस अधिनियम में एक सूत्र जोड़ दिया गया कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेज़ी सहायक भाषा के तौर पर साथ-साथ चलेगी। अंग्रेजी को सहायक के तौर पर मानने के पीछे तर्क दिया गया कि देश अभी-अभी आज़ाद हुआ है। लेकिन 71 साल बीत जाने के बाद भी अंग्रेजी हमारे देश में उसी महत्व के साथ चल रही है। अंग्रेजी के साथ चलते-चलते राज-काज की भाषा के रूप में हिंदी लगातार पिछड़ती चली गयी। इसलिए हम हिंदी दिवस मनाने के साथ-साथ बार-बार यह संकल्प लेते हैं कि हिंदी भारत के राज-काज की भाषा बने।
 शंघाई इंटरनेशनल स्टडीज यूनिवर्सिटी में हिंदी के विजिटिंग प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी के अनुसार 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की वजह या उद्देश्य यह है कि संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया, उन नीतियों के अनुपालन में हिंदी का विकास किस तरह से होना चाहिए, किस तरह हो रहा है या हिंदी को बढ़ावा देने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं। लेकिन मूलतः यह राजभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता था। कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग बढ़ाने के लिए इसकी शुरूआत हुई थी। लेकिन अब भारत और अन्य देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी दिवस मनाया जाता है। इस दिवस पर हमें मूल्यांकन करना चाहिए कि हम कहां पहुचे हैं, इस दिशा में क्या कमी रह गयी है। इसे मूल्यांकन दिवस के तौर पर माना जाना चाहिए। हिंदी से जुड़े साहित्यकार, लेखक या मीडियाकर्मी हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए अपने-अपने स्तर पर काम करते हैं। लेकिन भारत में या भारत के बाहर हिंदी की लोकप्रियता और प्रसार को बढ़ाने में साहित्य और साहित्यकारों का बड़ा योगदान है।
पीकिंग यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर च्यांग चिंगख्वेई ने बताया कि हाल में मॉरीशस में हिंदी सम्मेलन बहुत सफल रहा। सम्मलेन में भारत सरकार की भूमिका काफी सराहनीय रही। अब14 सितंबर को हिंदी दिवस भी मनाया जा रहा है। भारत और वैश्विक स्तर पर हिंदी का महत्व भी बढ़ रहा है। भारत भी अब एक मजबूत शक्ति बन चुका है। मुझे लगता है कि हिंदी दिवस एक सिर्फ दिवस नहीं है, बल्कि हिंदी को लेकर कुछ न कुछ सीखने और करने की प्रेरणा देता है। भारतीय लोगों ही नहीं बल्कि हम विदेशियों को भी यह शक्ति देता है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार और जोर से करें। मैं कहना चाहता हूं कि सरकारी काम में हिंदी का प्रयोग अधिक से अधिक होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि अगर भारत सरकार दूसरी देश की सरकारों के साथ समझौते आदि अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में करने चाहिए। ऐेसे में विदेशों में भी पता चलेगा कि भारत में हिंदी का इस्तेमाल होता है। इस तरह सबसे पहले ऊपर के स्तर से हिंदी का इस्तेमाल करने की आवश्यकता है।  
 बीजिंग विदेशी भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा रहे विकास कुमार सिंह कहते हैं कि हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए तमाम संस्थान खुल चुके हैं। इसके साथ ही हिंदी दिवस मनाया जाता हैभारत के बाहर विदेशों में भी हिंदी को बढ़ावा देने के लिए काम किया जा रहा है। लेकिन देश के अंदर ही हिंदी को जितना महत्व मिलना चाहिए उतना मिल नहीं रहा है। भारत में अभी भी अंग्रेजी का प्रभाव इतना ज्यादा है कि हिंदी बोलने वालों को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती। मैंने भारत में रहकर यह महसूस किया है। ऐसा लगता है कि हम भारतीय लोग ही राष्ट्रभाषा के महत्व को नहीं समझते हैं।
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट आशीष गोरे कहते हैं हिंदी को देश की प्रगति का कर्णधार बनाते हुए अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को साथ लेना होगा। इसके जरिए भारतीय लोगों में अंग्रेज़ी न आने के कारण उपजी हीन भावना को दूर करने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
हिंदी अध्यापन से जुड़ी हिना चतुर्वेदी कहती हैं कि आजादी के बाद से भारत एक राष्ट्रभाषा की जरूरत महसूस करता रहा। अब सवाल यह था कि राष्ट्रभाषा के तौर पर किस भाषा का चुनाव किया जाय। भारत में इतनी भाषाएं बोली जाती थी कि उनमें से किसी एक को चुनना दूसरे को नाराज करना था।
लेकिन हिंदी के पक्ष में यह बात गयी कि वह सभी भाषाओं में से सबसे ज्यादा बोली या समझी जाती थी। इस तरह हिंदी को राष्ट्रभाषा के लिए सबसे उपयुक्त समझा गया। दरअसल हिंदी दिवस हमें हिंदी के महत्व को याद दिलाने का काम करता है। देखा जाय तो हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए सिर्फ एक दिवस या आयोजन ही पर्याप्त नहीं है। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया होनी चाहिए, इसे एक आंदोलन मानें कि हिंदी को पूरे देश में प्रचारित करना होगा। वैसे हमारी आंचलिक भाषाएं किसी से कम नहीं हैं, लेकिन हमें देश को एक सूत्र में बांधने के लिए एक भाषा तो चाहिए। वह काम हिंदी बखूबी कर सकती है। क्योंकि हिंदी में अपने अंदर तमाम दूसरी भाषाओं के शब्दों को समाहित करने की खूबी है। प्रचार के लिए सिर्फ हिंदी दिवस काफी नहीं होते। हिंदी को बढ़ावा देने कि लिए जरूरी है अच्छे साहित्य की रचना हो। अच्छा साहित्य होगा तो पाठक मिल ही जाएंगे। बेहतर या अच्छे साहित्य की रचना ही नहीं होगी तो पाठक या श्रोता कहां से आएंगे।
जबकि हिंदी लेखन से जुड़ी अनीता ज्यादा आशावान नहीं हैं, कहती हैं कि हिंदी के अपने ही इस भाषा से मुंह मोड़ रहे हैं। अगर हिंदी दिवस मनाने से हिंदी का भला होता है तो रोज ऐसे दिवस मनाने चाहिए। बकौल अनीता हिंदी के बारे में यह बात कही जा सकती है, जैसे मां-बाप को घर से निकाल कर पहले आश्रम में भेज दिया गया हो। फिर उन्हें सम्मानित करने के लिए हार पहना रहे हैं।
क्वांगतोंग विदेशी भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाने वाली किरण वालिया कहती हैं कि हिंदी आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई देशों में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। हमारे सामने यह चुनौती खड़ी है कि एक ओर हम हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी ओर युवा वर्ग अंग्रेजी की तुलना में हिदी बोलना अपनी कमज़ोरी समझता है। खुद को सम्मानित महसूस नहीं करता। या फिर हिंदी के साथ अंग्रेजी शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग कर स्वयं को गौरवान्वित समझता है। इस तरह हिंदी भाषा का, हिदी बोली का सही रूप बिगड़ता जा रहा है।

प्रो. बलदेव भाई कहते हैं कि आज भारत में ही नहीं दुनिया के सैंकड़ों विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। सभी हिंदी प्रेमियों को यह जानकर आश्चर्य और हर्ष होगा कि हाल में मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में दो दर्जन देशों के गैर-भारतीय हिंदी प्रतिनिधि आए थे। उन प्रतिनिधियों की हिंदी बहुत अच्छी है, उनके विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। इससे पता चलता है कि हिंदी का महत्व भारतीय जनमानस के मन और व्यवहार आज भी है। लेकिन अंग्रेज़ी को सरकारों द्वारा प्रतिष्ठा दी जाती रही, तो हिंदी के साथ एक पिछड़ेपन का भाव जुड़ता चला गया कि अंग्रेजी अभिजात्य और तरक्की की भाषा है और हिंदी आम आदमी की भाषा है। हिंदी के साथ आत्महीनता का भाव अनावश्यक रूप से जुड़ता चला गया। इस भाव से बाहर निकलने की जरूरत है।
हिंदी कैसे बनेगी स्वाभिमान की भाषा, इस पर बलदेव कहते हैं कि जनता और हिंदी प्रेमियों के स्तर पर ये बहुत आवश्यक है कि वे हिंदी को व्यवहार में लाते समय एक भाषायी स्वाभिमान के साथ जोड़ें।
गांधी जी ने कहा था कि, जिस राष्ट्र की कोई अपनी भाषा नहीं होती, वह राष्ट्र गूंगा होता है। अंग्रेजी तो उपनिवेश काल में थोपी गयी भाषा है, यह भारतीय भाषा नहीं है। लेकिन बड़ी विडंबना इस बात की है कि जब देश आजाद हुआ, उस वक्त सत्ता पाने वालों ने भारतीय भाषायी स्वाभिमान को दिल में आत्मसात नहीं किया। इसीलिए उन्हें लगा कि हम अंग्रेज़ी के बिना चल नहीं सकते। भले ही अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा माना जाता हो। लेकिन विश्व में तमाम प्रतिष्ठित देश हैं, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन या इजराइल। इन सभी देशों में अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं के बराबर होता है। इन्होंने अपनी भाषाओं के महत्व को समझा और विकास किया। इजराइल का उदाहरण प्रमुख तौर पर दिया जा सकता है कि जब वह यहूदी राष्ट्र बना तो उन्होंने बिखरी हुई भाषा हिब्रू को प्रतिष्ठित करने का जिम्मा उठाया।
प्रोफेसर लोहनी कहते हैं, मुझे लगता है कि हिंदी और अंग्रेज़ी की तुलना नहीं होनी चाहिए। हिंदी का मूल्यांकन करते वक्त अंग्रेज़ी ने उसे कितना नुकसान पहुंचाया इस तरह मूल्यांकन करना ठीक नहीं है। अंग्रेजी पहले ही विश्व भाषा बन चुकी थी। अंग्रेजी से परहेज करने वाले देश भी आज अंग्रेजी को अपना रहे हैं। विश्व की तमाम भाषाओं में इंग्लिश के शब्द प्रवेश कर चुके हैं। हां यह बात सही है कि हिंदी में अंग्रेजी के शब्द कुछ ज्यादा आ चुके हैं। शायद इसकी वजह यह भी है कि हम अंग्रेज़ों के उपनिवेश थे। लेकिन कहा जा सकता है कि प्रत्येक भाषा के विकास में अन्य भाषाओं का योगदान होता है। अंग्रेजी की स्वीकार्यता दूसरे तौर पर बढ़ी है कि आप यात्रा पर दूसरे देश जाते हैं, वहां अंग्रेजी से आपका काम चलता है। ऐसे में अंग्रेजी से नुकसान जैसी कोई बात नहीं है।
भारत में उच्च वर्ग या शासक वर्ग अंग्रेजी में खुद को सहज समझता है, जबकि आम तौर पर अंग्रेजी बोलने, लिखने वालों का प्रतिशत बहुत कम है। लेकिन ऊपरी तौर पर मूल्यांकन करने में ऐसा लगता है कि तमाम लोग अंग्रेज़ी में बात करना सुविधाजनक समझते हैं। और हां अगर आज वास्तव में एक कोने से दूसरे कोने में जाकर बात कर सकते हैं या फिर अपने विचार साझा कर सकते हैं, वो भाषा हिंदी है। आज भारत के तमाम कोनों में हिंदी पहुंच चुकी है। लेकिन पूर्व से पश्चिम या दक्षिण में आम लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं। लेकिन उच्च वर्गीय भावना ने लोगों को दबाने का काम किया। लेकिन धीरे-धीरे यंत्र और संसाधनों में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से साफ है के ये अपना स्थान बना रही हैं।
प्रोफेसर च्यांग चिंगख्वेई कहते हैं मुझे लगता है कि भारत सरकार हिंदी को लेकर गंभीर है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या विदेश मंत्री या अन्य बड़े नेता, हिंदी में अपनी बात रखना पसंद करते हैं। यह हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अच्छा है।
उधर विकास कुमार सिंह कहते हैं,चीन में एक ही भाषा बोली जाती है, वह है चीनी। दक्षिण क्वांगतोंग प्रांत में या कुछ अन्य क्षेत्रों में अपनी भाषाएं हैं। लेकिन पूरे देश में मानक भाषा मंदारिन ही है। स्कूलों, विश्वविद्यालयों में इसी भाषा में अध्ययन होता है। इस तरह पूरा राष्ट्र एक भाषा के जरिए आपस में जुड़ा रहता है।
लेकिन हाल के वर्षों में विशेषकर जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से हिंदी का बेहतर ढंग से प्रचार-प्रसार हो रहा है। मोदी की पहल से हिंदी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है, क्योंकि वह जब भी किसी विदेशी दौरे पर जाते हैं, हिंदी में ही भाषण देते हैं।
(साभार चायना रेडिओ- http://hindi.cri.cn/news/china/561/20180914/183699_1.html)

नई दिल्ली: आज देश भर में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है. अंग्रेजी के बढ़ते चलन और हिंदी भाषा की हो रही अनदेखी को देखते हुए देश में सबसे पहले 14 सितंबर, 1949 के दिन हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला था. इसके बाद से ही हर साल हिंदी दिवस को पूरे देश में मनाने का फैसला  किया गया.

हिंदी से जुड़ी कुछ रोचक बातें जिनके बारे में शायद ही आप जानते हों-

1. 14 सितंबर, 1949 में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद 1953 से पूरे देश में हिंदी दिवस मनाया जाने लगा.
2. हिंदी भाषा के प्रचार के लिए नागपुर में 10 जनवरी 1975 को विश्व हिंदी सम्मेलन रखा गया था. इस सम्मेलन में 30 देशों के 122 प्रतिनिधि शामिल हुए थे.
3. हिंदी की बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज दुनिया में हिंदी चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है. दुनिया भर में हिंदी बोलने वालों की संख्या करीब 75-80 करोड़ है.
4. भारत में करीब 77 प्रतिशत लोग हिंदी लिखते, पढ़ते, बोलते और समझते हैं.


5. हिन्दी के प्रति दुनिया की बढ़ती चाहत का एक नमूना यही है कि आज विश्व के करीब 176 विश्वविद्यालयों में हिंदी एक विषय के तौर पर पढ़ाई जाती है.
6. हिंदी के प्रति लोगों की बढ़ती रुचि को देखते हुए साल 2006 के बाद से ही पूरी दुनिया में 10 जनवरी को हिंदी दिवस मनाया जाने लगा.
7. भारत के अलावा नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, यूगांडा, पाकिस्तान, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा जैसे तमाम देशों में हिंदी बोलने वालों की संख्या अच्छी-खासी है. इसके आलावा इंग्लैंड, अमेरिका, मध्य एशिया में भी इस भाषा को बोलने और समझने वाले अच्छे-खासे लोग हैं.
8. हिंदी का नाम फारसी भाषा के 'हिंद' शब्द से निकला है. जिसका अर्थ 'सिंधु नदी की भूमि' है.
9. हिंदी भाषा की बढ़ती महत्ता को इस बात से समझा जा सकता है कि 'अच्छा', 'बड़ा दिन', 'बच्चा', 'सूर्य नमस्कार' जैसे तमाम हिंदी शब्दों को ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में शामिल कर लिया गया है.
10. फ़िजी एक ऐसा द्वीप देश है जहां हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है. जिसके चलते इन्हें फ़िजियन हिन्दी या फ़िजियन हिन्दुस्तानी भी कहा जाता है.





अनुवादिनी

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