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गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
1857 का संग्राम प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रामाणिक दस्तावेज
मैंने इ.स. 2000 में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के लिए 1857 का संग्राम (मूल मराठी पुस्तक 1857 चा संग्राम लेखक- वि.स.वाळींबे ) का हिंदी अनुवाद किया था। इस पुस्तक को भारत सरकार के प्रौढ साक्षरता अभियान के तहत स्वीकृत किया गया है। इस पुस्तक की अब तक चार आवृत्ति प्रकाशित हो चुकी है। हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने का यह मेरा पहला प्रयास रहा जिसका हिंदी जगत में स्वागत किया गया। हिंदी अनुवाद के क्षेत्र में मेरी रुचि बढ गयी। केंद्रीय हिंदी अनुवाद ब्यूरो ,नई दिल्ली के भूतपुर्व निदेशक डॉ.विचार दास जी ने इस पुस्तक पर समीक्षा लिखी जो भारतीय अनुवाद परिषद, नई दिल्ली की पत्रिका अनुवाद अंक- 111 अप्रैल-जुन 2002 के अनवाद मुल्याकंन विशेषांक में प्रकाशित की गई थी।
संबंधित समीक्षा निम्नानुसार है-
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया देश की एकमात्र ऐसी प्रकाशन संस्था है जो भारतीय भाषाओं में उचित मूल्य पर पुस्तकें पाठकों तक उपलब्ध कराती है। ‘1857 का संग्राम’ वि.स.वालिंबे द्वारा लिखित तथा विजय प्रभाकर द्वारा अनूदित ग्रामीण पाठकों के लिए प्रकाशित उसी संस्था की ऐसी पुस्तक है जो हिंदी भाषा के अल्प आय वाले पाठकों की पहुँच से दूर नहीं हैं।
1857 का संग्राम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली कडी है जिसे देश के अनेक रणबांकुरों ने अपने जीवन की आहुति देकर शुरु किया था। इस कडी को ‘1857 का संग्राम’ शीर्षक पुस्तक के रुप में लेखक ने रोचक शैली तथा सरल भाषा में लिखा है। पुस्तक कुल सात अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय में 10 मई, 1857 के दिन का वर्णन किया गया है जिसमें दिल्ली के पास मेरठ छावनी में असंतोष की भडकी आग ने किस प्रकार गंगा-यमुना के सारे इलाके को अपनी लपेट में ले लेने का चित्रण किया गया है। लेखक 10 मई, 1857 की घटना को अचानक घटी घटना नहीं मानते बल्कि अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और एनफिल्ड बंदूकों में भरी जाने वाली कारतूस का पूरा विवरण देते हैं जिससे अंग्रेजों द्वारा देशी सिपाहियों का धर्म-भ्रष्ट होने का खतरा था। इसी अध्याय में मंगल पांडे द्वारा सुलगाई गई चिंगारी और उनके फाँसी पर लटकाए जाने का विवरण दिया है।
दूसरे अध्याय में लेखक ने बैरकपुर के पश्चात अंबाला छावनी में विद्रोह की चिंगारी का इतिहास रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस अध्याय में देशी सिपाहियों की मनोदशा का विवरण यूँ व्यक्त किया है:
‘मेरठ छावनी में भी अब अन्य जगहों की तरह एनफिल्ड बंदूकों की आपूर्ति होने लगी थी। पहले अंग्रेजी सिपाहियों को ये बंदूकें चलाने का प्रशिक्षण दिया गया। इसके बाद देशी सिपाहियों को प्रशिक्षण देने की योजना तय हुई थी। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम 24 अप्रैल से शुरु होने वाला था। इसकी बिल्कुल पहली रात को हिंदू सिपाहियों ने गंगाजल की तथा मुसलमान सिपाहियों ने कुरान की कसम खाई – “ हम उसी बंदूक को हाथ लगाएंगे जिस पर चरबी नहीं लगाई गई होगी ।“
इस अध्याय में मेरठ छावनी के विद्रोही सिपाहियों के कोर्ट मार्शल का विवरण दिया है तथा उन सिपाहियों को नंगे पाँवों, बिना पगडी तथा हाथों में बेडी लटकाए मेरठ शहर में जुलूस के रुप में निकालकर जेल की तरफ ले जाते हुए तथा मेरठ शहरवासियों की आँखों में क्रोध की चिंगारी को निकलते हुए दिखाया गया है। यहीं से स्वतंत्रता संग्राम की शुरुवात हुई और देखते ही देखते दिल्ली भी बागी सिपाहियों के कब्जे में आ गई। उन्होंने सौ साल पहले प्लासी में हुई पराजय का बदला अंग्रेजों से चुकता कर लिया।
दिल्ली मे विद्रोही सिपाहियों के कब्जे की सूचना जब देश के अन्य छोटे-बडे कस्बों, गाँवों में फैली तो चारों तरफ विद्रोह की लहर दौड गई। देश का हर कोना विद्रोह की चिंगारी से जलने लगा। विद्रोह का समाचार जब नाना साहब पेशवा को मिला तो उनमें भी आजादी की लहरें हिंडोले मारने लगीं। विद्रोहियों के आमंत्रण पर नाना साहब भी इस जंग में कूद पडे। तीसरे अध्याय को ‘बिठूर के महाराज’ शीर्षक दिया गया है जिसमें नाना साहब पेशवा और कानपुर में विद्रोही सैनिकों का पूरा विवरण है।
‘अवध की स्थिति’ में लखनऊ में अंग्रेजी सिपाहियों और विद्रोही सिपाहियों के घमासान तथा कूटनीति आदि का पूरा विवरण दिया है।
पाँचवें अध्याय में दिल्ली में उपद्रवियों तथा विद्रोहियों के हाथों से दिल्ली वापस अंग्रेजों के हाथ लौटने और बूढे बादशाह बहादुरशाह जुफर के पतन का खुलासा है।
छठे अध्याय में लखनऊ के पुन: अंग्रेजों के हाथ में आने और विद्रोहियों के पराजय का विवरण है। सातवें और अंतिम अध्याय में बुंदेलखंड और वीरांगना झाँसी की रानी के शौर्य का वर्णन, तात्या टोपे की कूटनीति और देश की आजादी में किया गया आत्मोत्सर्ग का उल्लेख किया गया है।
74 पृष्ठों में संकलित यह पुस्तक सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज है जिसे लेखक ने आम पाठकों के लिए सहज, सरल भाषा और रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। पुस्तक खोलने के बाद पुस्तक को समाप्त किए बिना पाठक का मन नहीं मानेगा। पुस्तक के हिंदी अनुवाद हिंदी भाषी पाठकों के लिए एक उपहार है। इसमें कहीं भी शब्दों की क्लिष्ठता नहीं है यानि पुस्तक ग्रामीण पाठकों के लिए मानक है।
इस पुस्तक में जहाँ प्रथम संग्राम स्वतंत्रता संग्राम में देशी सिपाहियों की आजादी के प्रति जज्बात का दर्शन होता है वहीं अंग्रेजों की क्रूरता, कुटिलता और बदले की भावना से किए गए वध एवं मासूम जनता के प्रति उनके अत्याचार भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आजादी मिलने के इतने वर्षों के उपरांत देश में फैली अराजकता, हिंसा आदि को ध्यान में रखते हुए यदि उक्त पुस्तक पाठको तक पहुँचेगी तो निश्चित रुप से हमारे पूर्वजों द्वारा आजादी के लिए दिया गया बलिदान हमें सही ढंग से सोचने तथा देश में आजादी स्थापित रखने में मददगार साबित होगा ।
डिमाई आकार की पुस्तक में अक्षरो का आकार भी सही है। बीच-बीच में चित्र दिए गए हैं जोकि पुस्तक की गुणवता में वृध्दि करते है किंतु यह और उत्तम होता यदि 1857 के ऐतिहासिक स्थलों का चित्र दिया जाता तो पुस्तक की प्रामाणिकता और बढ जाती । कुल मिलाकर पुस्तक न केवल ग्रामीण पाठकों के लिए बल्कि बाल पाठकों के लिए भी पठनीय है।
(*1857 का संग्राम, वि.स.वालिंबे (अनु.विजय प्रभाकर), नेशनल बल ट्रस्ट, इंडिया, प्र.सं.2000,)
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