डॉ. रामवृक्ष सिंह
बहुत दिनों बाद ससुराल पहुँचे। सास-ससुर ने खूब आवभगत की। साली ने पूछ-पूछकर और सच
कहें तो ठूंस-ठूंसकर खिलाया-पिलाया। लेकिन
मुँहलगे साले ने मुँह का सारा जायका खराब कर दिया। पूछ बैठा- "जीजाजी, आप तो बैंक में हिन्दी
अधिकारी हैं न?" हमें लगा, साला सच्ची बात हमारे मुँह से सुनकर न
जाने क्या मजे लूटना चाहता है? जिस रहस्य को हम बरसों से अपनी आबरू की
तरह दबाए-छिपाए और दुनिया
की नज़रों से बचाए-बचाए घूम रहे थे, वही ये साला आज
सरे आम उजागर किए दे रहा है। अब क्या है! कुछ दिन बाद ससुराल के सभी संबंधियों, फिर उनके
अड़ोसियों-पड़ोसियों और
फिर सारे शहर को पता चल जाएगा कि हमारी औकात तो कुछ भी नहीं है, कि हम तो अदना
से हिन्दी अधिकारी हैं। अरे राम! कितना अनर्थ हो जाएगा! सोच-सोचकर साले पर
बड़ा गुस्सा आ रहा था। लेकिन करते क्या? गुस्सा तो हिन्दी की दुर्दशा से जुड़ी
तमाम बातों पर आता है, लेकिन हम क्या कर लेते हैं? सच कहें तो
गुस्से को पी जाना और अपनी लाचारगी को शाश्वत मानकर स्वीकार कर लेना ही हिन्दी
अधिकारी का परम कर्तव्य और परम प्राप्य है। हम चुप रह गये। बड़े-बड़े मंसूबे
बनाकर ससुराल गए थे, लेकिन कोई भी पूरे न हुए। जितने समय
रुकने की सोचकर गए थे, उससे भी पहले ही चले आए। बहुत निकले
मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले। बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। चचा
ग़ालिब ने शायद हमारे लिए ही यह शेर लिखा था।
घर आए तो ससुराल का संक्रमण यहाँ भी पहुँच गया था। इतनी तेजी से कोई व्याधि
नहीं फैलती, जितनी तेजी से
प्रवाद। वैसे तो यह बीमारी मानव-सभ्यता के आरंभिक दिनों से ही बदस्तूर
कायम है। लेकिन इसकी हालिया तेजी निश्चित रूप से सूचना क्रांति की मेहरबानी है।
अभी घर के अहाते में पूरी तरह फिट भी नहीं हो पाए थे कि बड़े बेटे साहब ने हमसे
पूछ लिया- "क्यों डैड! आप बैंक में हिन्दी अधिकारी हैं?" उसके प्रश्न में हमें जिज्ञासा कम, तंज अधिक दिखा। हमने बड़ी लाचारी से
उसकी ओर देखा, जैसे बकरा कसाई
को देखता है। बोले कुछ नहीं। अलबत्ता मन ने कहा- "मान लो बेटा, हम हिन्दी
अधिकारी न होते, कहीं के कलट्टर, मजिस्टेट होते
तो क्या तुम कुछ दूसरी तरह से पैदा हुए होते? या तुम्हारी अम्मा, जिनसे हमारी
शादी तभी हो गई थी, जब हमें और उनको भी सुथने का नाड़ा
बाँधने का भी सलीका नहीं था, कुछ और हो गई होतीं?" बेटे की बात अनसुनी करके हम चुपचाप बैठ
गए।
हिन्दी अधिकारी बने हमें एक चौथाई सेंचुरी हो चुकी है। और इस दौरान हमने
सबसे बड़ा सबक यही सीखा है। कोई कुछ भी बोले, कुछ भी कहे.. चुपचाप सुनते रहो। अपनी पगार का स्मरण करो, उसी में मन लगाओ। जैसे सच्चा भक्त
संसार की दूसरी बातों पर ध्यान न देकर अपने आराध्य का ध्यान लगाए रहता है, उसी प्रकार
सच्चा हिन्दी अधिकारी और सारी बातों, यहाँ तक कि हिन्दी कार्यान्वयन पर भी
ध्यान न देकर, बस महीने के अंत
में मिलने वाली अपनी तनख्वाह पर ध्यान लगाता है। उससे भी ऊँचा संत वह है जो
निरीक्षण, कार्यशाला, सम्मेलन आदि के
बहाने अपनी कमाई बढ़ाने के दूसरे स्रोतों पर ध्यान लगाए। सच्चा राजभाषा अधिकारी
निरपवाद रूप से ऐसा ही करता है। कई बार तो वह अपने कपड़े -लत्ते पर भी ध्यान नहीं देता। बहुत से
हिन्दी अधिकारी ऐसे मिल जाएँगे जो बीस रुपये वाली रबड़ की शानदार हवाई चप्पल और
ठेले पर बिकने वाली बिना प्रेस की हुई, स्थायी रिंकल-युक्त पैंट-कमीज पहनकर ही
दफ्तर चले आते हैं। सर्दियों में अस्पताल की बेडशीट जैसी हरी-हरी चद्दरें और
खेस ओढ़कर दफ्तर आनेवाले हिन्दी अधिकारी भी हमने देखे हैं। एक बार पहनने के बाद
फटने तक शरीर से चिपकी रहने वाली जीन्स और कई-कई हफ्ते से बह रहे तरह-तरह के श्रम-वारि से सुवसित
टी-शर्ट पहनकर
निरीक्षण करने वाले कर्मवीर उप निदेशक (कार्यान्वयन) से भी अपना
साबका पड़ चुका है।
अब हम बेटे को कैसे समझाते कि उसके बाप की प्रोफेशनल बिरादरी में कैसे-कैसे अघोरी
शामिल हैं! उसका कोमल मन, जो पहले ही अपने
बाप को राजभाषा के अभिधान से विभूषित, किन्तु वस्तुतः गाय-गोरू चरानेवाले
अथवा ईंटा-गारा ढोने वाले
लतमरुआ लोगों की भाषा यानी हिन्दी के सेवक के रूप में देखकर विचलित हो चुका है, इस कठोर सच्चाई
का सदमा कैसे झेलेगा? यह सोचकर हम उस मुद्दे पर चुप रह गए।
अलबत्ता दूसरे मुद्दे पर हमने बच्चे की क्लास ले ली और डपटते हुए उससे कहा- "यार, जबसे तुम पैदा
हुए हो तब से तुम्हें समझाते चले आ रहे हैं कि हमें डैड-वैड मत बुलाया
करो। बुलाना है तो सीधे-सीधे पिताजी या बाबूजी कहो। यही अपनी
परंपरा है। लेकिन तुम हो कि कुछ समझते ही नहीं।"
बच्चा अब बच्चा नहीं रहा है। कुछ-कुछ मुँहजोर भी हो चला है। कुछ दोष तो
उसकी उम्र का है और कुछ अपना भी दुर्भाग्य। सच कहें तो हर कोई हिन्दी अधिकारी से
जुबान तराशी करता है, चाहे वह चपरासी हो या टाइपिस्ट। हर
किसी को मालूम है कि हिन्दी अधिकारी की लानत-मलानत करने का उसे जन्मसिद्ध अधिकार
है। हर कोई जानता है कि सरकारी संस्थाओं के राजभाषा-कर्मी की भर्ती ही इसलिए होती है कि
उसपर सब अपना फ्रस्ट्रेशन निकालें। हिन्दी विभाग वाला जो अनुवाद करे, उसमें कोई भी
अपनी लंगड़ी टाँग घुसा सकता है। अनूदित सामग्री को कठिन बताकर हिन्दी पाठ को और
उसके माध्यम से हिन्दी अधिकारी को कभी भी ठेंगा दिखाया जा सकता है। बस यह सोचकर
दिल को बहला लेते हैं कि वे सब पराए लोग हैं। उनका क्या? किन्तु बुरा तो
तब लगता है जब अपने सगे ही अपना अपमान करने लगें। बच्चे की भी क्या कहें! सयाना हो चुकने
के कारण कभी-कभी अपनी इयत्ता
और अस्मिता को लेकर संजीदा हो जाता है। विडंबना यह है कि उसकी इस नई -नवेली अदा के
पहले शिकार हम ही बनते हैं। लिहाजा इस बार भी बच्चे ने तड़ाक से टीप दिया- "क्या डैड!
हमें ही क्यों, आप और आप जैसे
हजारों लोग हमारे जन्म लेने से भी कई दशक पहले से, बल्कि सच कहें तो सन उन्नीस सौ उनचास
से ही पूरे देश को समझाते चले आ रहे हैं कि हिन्दी हमारी राजभाषा है, कि उसमें काम
करना आसान है। समझा ही नहीं रहे हैं, सबको ट्रेनिंग भी देते आ रहे हैं।
कार्यशाला कराते हैं। सम्मेलन कराते हैं। यहाँ तक कि मॉरीशस, इंग्लैंड, सूरीनाम और
न्यूयॉर्क जैसी विदेशी जगहों पर भी जा-जाकर हिन्दी का नगाड़ा पीटते चले आ रहे
हैं। कुछ फर्क पड़ा उससे? सारी कसरत बेकार ही तो साबित हुई है।"
हम टुकुर-टुकुर उसके मुँह की ओर देखते रह गए।
आजकल के बच्चे कितने समझदार हो गए हैं! इनको समझाना आसान काम है क्या! कोरी भावुकता
भरी बातों से इनके दिल को नहीं जीता जा सकता। और सिर्फ इसलिए तो ये कतई हमारी बात
नहीं मान लेंगे कि हम इनके डैड हैं। जब तक कारण-कार्य संबंध न दिखाई पड़ता हो, बात पूरे तर्क
के साथ न कही गई हो, ये आज की पीढ़ी आपको भाव नहीं देने
वाली। अब हम कैसे इसे समझाएँ? यही सोच रहे थे कि बच्चे ने
निर्णयात्मक लहजे में कहा- "डैड, आप हिन्दी अधिकारी हैं। लेकिन अंग्रेजी
के बिना आपका भी काम नहीं चलता। अगर अंग्रेजी नहीं होती तो आपको कौन पूछता? अंग्रेजी है, इसलिए आप हैं।
और एक बात। यदि आप केवल हिन्दी जानते तो भी आपको कोई घास नहीं डालता। क्योंकि आप
अंग्रेजी भी जानते हैं और अंग्रेजी से हिन्दी तथा हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद
करने में सक्षम हैं, इसीलिए आप हिन्दी अधिकारी हैं।
अंग्रेजी ज्ञान के बिना तो डैड आप अपना काम ही नहीं कर पाते।"
बच्चे की इस युक्ति पर हमारी बाँछें खिल आईं- "अरे हाँ! यार! तैने ये अच्छा रास्ता निकाला।" हमारा मन भर आया। हम गदगद हो आए। बेटे ने क्या बात बताई है! लेकिन फिर कुछ
सोचकर मन का हैलोजन अचानक बुझ-सा गया। इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि
बेटे के मन में भी हमारे लिए यदि कुछ सम्मान है तो केवल इसलिए कि हमें हिन्दी ही
नहीं, अंग्रेजी का भी
ज्ञान है। यानी हमारे सम्मान का अवलंब ये निगोड़ी अंग्रेजी ही है, न कि हिन्दी। यह
विचार मन में आते ही हमारे मन पर पड़ा सदियों का कुहासा अचानक छंट गया। हमें कुछ-कुछ वैसा ही तत्व-बोध हुआ, जैसा पीपल के
पेड़ के नीचे बैठे, गृह-त्यागी सिद्धार्थ को भिक्षाटन से मिली
खीर खाने के बाद हुआ था। अरे यार! अब समझ आया कि हर हिन्दी अधिकारी बात-बात पर अंग्रेजी
क्यों झाड़ने लगता है। सच तो यही है कि यदि हिन्दी अधिकारी अंग्रेजी न झाड़े तो
उसकी कोई इज्जत ही न करे।
एक दिन बेटा हमारे दफ्तर आ धमका। उसने हमारे चारों ओर निगाह दौड़ाई। कुल
मिलाकर सब कुछ ठीक ही ठाक था। फिर अचानक उसने कुछ देखा और प्रश्न दागा- "डैड, आपकी सीट शौचालय के एकदम पास क्यों है?" सच कहें तो बहुत दिनों से हमारे अंतर्मन में कहीं यह खटका लगा हुआ था कि
बेटे या कोई अन्य प्रबुद्ध महाशय ज़रूर एक न एक दिन ऐसा ही कोई सवाल दागेंगे।
इसलिए उत्तर की तैयारी पहले से ही कर रखी थी। कॉलेज के दिनों से ही हम इसी तरह दस
संभावित प्रश्न तैयार करके जाते रहे हैं और उनमें से दो-चार के फिट हो
जाने पर बाइज्जत परीक्षाएं उत्तीर्ण करते रहे हैं। सो हमने बेटे के उक्त प्रश्न का
समाधान प्रस्तुत किया- "बेटा, तुम तो जानते हो कि दफ्तर के लोग चाहे
दिन भर अपनी सीट पर न जाएँ और इधर-उधर घूम-फिरकर टाइम पास करके घर चले जाएँ, किन्तु दिन में
तीन-चार बार शौचालय
तो वे अनिवार्य रूप से जाते ही हैं। इसलिए हमारी सीट शौचालय के बगल में रखी गई है, ताकि हर आते-जाते को हम गाहे-ब-गाहे राजभाषा
कार्यान्वयन की जानकारी देते रहें। बल्कि सरापा हिन्दी की प्रतिमूर्ति बने
रहनेवाले तुम्हारे इस अभागे बाप को देखकर उन्हें दिन में तीन-चार बार तो ऐसा
लगे कि इस देश के केन्द्र सरकार के दफ्तरों की राजभाषा हिन्दी है। लिहाजा शौचालय
के बगल में बैठने से राजभाषा कार्यान्वयन के प्रचार-प्रसार और अनुश्रवण में बहुत सुविधा हो
जाती है।" बेटा हमारी बात से कन्विन्स हो गया। हमें खुशी हुई। अंदर की जो बात हम उसे
नहीं बता पाए, वह यह है कि
शौचालय के पास बैठने से हमें भी कितनी सहूलियत है! आशा है बेटा जब थोड़ा और सयाना व
दुनियादार हो जाएगा तो खुद ब खुद समझ जाएगा कि हिन्दी अधिकारी होना कितने जीवट का
काम है। यों भी बाप के प्रति बेटों के मन में श्रद्धा तभी जगती है, जब वे खुद बाप
बनकर अधेड़ हो रहे होते हैं और उनके खुद के बेटों की रेखें फूट रही होती हैं। रही
साले की बात, तो उससे क्या
फ़र्क पड़ता है?
साले और साले के
जैसी अन्य प्रजातियों के जीवों से निबटने के नए-नए तरीके तो हिन्दी अधिकारी ताज़िन्दगी
ईज़ाद करता ही रहता है।
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डा.रामवृक्ष जी ने ’हिंदी अधिकारी’की व्यथा को बहुत ही रोचक व मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया हॆ.भाषा अंग्रेजी हो या कोई ओर,बुरी नहीं हॆ-लेकिन किसी विदेशी भाषा को अपनी भाषा से अधिक मान-सम्मान देना,अपनी राजभाषा को अपमानित करने की मानसिकता किसी भी राष्ट्र के लिए घातक हॆ. इतना सारगर्भित लेख प्रस्तुत करने के लिए-आपका भी आभार.
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