भारतीय संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने लोकसभा में राज भाषा हिंदी पर हुई चर्चा के उपरांत दिनांक 14.9.1949 को सभा को संबोधित किया। राज भाषा हिंदी को स्वीकार करने पर उन्होंने हिंदीतर सदस्यों का विशेष आभार व्यक्त किया क्योंकि राष्ट्रीय एकता एवं स्वाभिमान के लिए किसी एक भारतीय भाषा को राज भाषा के रुप में स्वीकार करना आवश्यक था। इस भाषण में उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया है कि राज भाषा हिंदी को बहुमत से स्वीकार किया गया है। वर्तमान राजनीति में हिंदी को राष्ट्र भाषा न मानने की होड़ लगी है जो देश की एकता के लिए घातक है। हमें भारतीय भाषा भगिनी परिवार में एकता एवं समन्वय रखना चाहिए क्योंकि इस राष्ट्र की संस्कृति एक है। जिस तरह एक देश, एक ध्वज,एक राष्ट्र गीत एवं एक राष्ट्र भाषा की संकल्प ना को विश्व में स्वीकार किया जाता है उसी तरह हमारे देश में राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों का सम्मान करना चाहिए जो अनिवार्य भी और हितकारी भी होगा। भारतीय संविधान के कलम ३०१ के अनुसार हिंदी राज भाषा है जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। हिंदी के विकास के लिए जो विशेष निर्देश जारी किए गए है उसके अनुसार हिंदी भाषा किसी एक प्रांत की विशेष भाषा नहीं है बल्कि उसका स्वरूप संपूर्ण राष्ट्र के सभी भाषाओं के प्रचलित शब्दों के आधार पर किया जाना सुनिश्चित किया गया है। संस्कृत को मूल आधार बना दिया गया है और हिंदी में विश्व के सभी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करने में कोई परहेज नहीं है जब वे शब्द देश-विदेश में प्रचलित है।
इस पुस्तक के लेखक डॉ.विमलेश कांति वर्मा ने अपनी भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि १९४९ से १९५० तक के दस्तावेज़ के आधार पर लिखी है। भारत की स्वाधीनता के बाद से संविधान बनने और पारित होने तक के चार वर्षों में देश के महान नेताओं के बीच हिंदी को संवैधानिक मान्यता दिए जाने के संबंध में हुई बहस का विवरण इस पुस्तक में उपलब्ध है।
हिंदी भाषा के विवाद में तत्कालीन भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी उस भाषण को फिर एक बार सभी ने पढना चाहिए। संबंधित भाषण भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित राष्ट्र भाषा से राज भाषा तक पुस्तक से साभार प्रस्तुत है।
“ अब आज की कार्यवाही समाप्त होती है, किंतु सदन को स्थगित करने से पूर्व मैं बधाई के रुप में कुछ शब्द कहना चाहता हूँ । मेरे विचार में हमने अपने संविधान में एक अध्याय स्वीकार किया है जिसका देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पडेगा। हमारे इतिहास में अब तक कभी भी एक भाषा को शासन और प्रशासन की भाषा के रुप में मान्यता नहीं मिली थी। हमारा धार्मिक साहित्य और प्रकाशन संस्कृत में सन् निहित था। निस्संदेह उसका समस्त देश में
अध्ययन किया जाता था, किंतु वह भाषा भी कभी समूचे देश के प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती थी। आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा लिखी है जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी और उस भाषा का विकास समय की परिस्थितियों के अनुसार ही करना होगा ।
मैं हिंदी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता । मेरा यह भी दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंश दान है, किंतु सामान्य व्यक्ति में हमारा उस भाषा का क्या रुप होगा जिसे हमने आज संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार की है। हिंदी में विगत में कई-कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियाँ हैं, पहले हमारा बहुत-सा साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया था। अब हिंदी में खड़ी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी-अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति ही होगी, अवनति नहीं होगी।
हमने अब देश का राजनैतिक एकीकरण कर लिया है। अब हम एक दूसरा जोड़ लगा रहे हैं जिससे हम सब एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक हो जाएंगे। मुझे आशा है कि सब सदस्य संतोष की भावना लेकर घर जाएंगे और जो मतदान में हार भी गए हैं, वे भी इस पर बुरा नहीं मानेंगे तथा उस कार्य में सहायता देंगे जो संविधान के कारण संघ को भाषा के विषय में अब करना पड़ेगा ।
मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हूँ । 1917 में जब महात्मा गांधी चंपारण में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिंदी प्रचार का कार्य आरंभ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्य देव और गांधी जी के प्रिय पुत्र देव दास गांधी ने वहां जाकर यह कार्य आरंभ किया। बाद में 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य
स्वीकार किया गया और वहां कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षो में इस कार्य से संबंध रहा हूँ, यद्यपि मैं इसे घनिष्ट संबंध का दावा नहीं कर सकता । मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे को गया और मेरे हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के संबंध में महात्मा गांधी के अनुरोध के अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है। मैं जानता हूँ कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पडा किंतु उनमें इस मामले में जो जोश था वह बहुत सराहनीय था। मैंने कई बार पारितोषिक-वितरण भी किया है और सदस्यों को यह सुन कर मनोरंजन होगा कि मैंने एक ही समय पर दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं, शायद तीन को ही दिए हों-अर्थात दादा, पिता और पुत्र हिंदी पढ कर, परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाण पत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया है। आज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिंदी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को उन्हें बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए।
यदि आज उन्होंने किसी विशेष बात पर हठ किया है तो हमें याद रखना चाहिए कि आखिर यदि हिंदी को उन्हें स्वीकार करना है तो वे ही करेंगे, उनकी ओर से हम तो नहीं करेंगे, और आखिर यह क्या बात है जिस पर इतना वाद-विवाद हो गया है? मैं आश्चर्य कर रहा था कि हमें छोटे-से मामले पर इतनी बहस करने की, इतना समय बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? आखिर अंक हैं क्या ? दस ही तो हैं। इन दस में, मुझे याद पड़ता है कि तीन तो ऐसे हैं जो अंग्रेजी में और हिंदी में एक से हैं। 2,3 और 0 । मेरे खयाल में चार और हैं जो रुप में एक से हैं किंतु उनसे अलग-अलग कार्य निकलते हैं। उदाहरण के लिए हिंदी का 4 अंग्रेजी के 8 से बहुत मिलता-जुलता है, यद्यपि एक 4 के लिए आता है और दूसरा 8 के लिए । अंग्रेजी का 6 हिंदी के 7 से बहुत मिलता है, यद्यपि उन दोनों के भिन्न-भिन्न अर्थ है। हिंदी का 9 जिस रुप में अब लिखा जाता है, मराठी से लिया गया है और अंग्रेजी के 9 से बहुत मिलता है। अब केवल दो-तीन अंक बच गए जिनके दोनों प्रकार के अंकों में भिन्न-भिन्न रुप हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। अत: यह मुद्रणालय की सुविधा या असुविधा का प्रश्न नहीं हैं जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है। मेरे विचार में मुद्रणालय की दृष्टि से हिंदी और अंग्रेजी अंकों में कोई अंतर नहीं है।
किंतु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते हैं, और मैं अपने सब हिंदी मित्रों से कहूँगा कि वे इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिए स्वीकार करें कि हम उनसे हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते हैं और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्यधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर यह बहुत बडी रियायत नहीं है। हम उनसे हिंदी स्वीकार करवाना चाहते थे और
उन्होंने स्वीकार कर लिया, और हम उनसे देवनागरी लिपि को स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली। वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे, उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यो होनी चाहिए? इस पर मैं छोटा-सा दृष्टांत देता हूँ जो मनोरंजक होगा । हम चाहते हैं कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते हैं। वे कहते हैं, आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं, उसके लिए आपका स्वागत है। किंतु जब आप हमारे घर आएं तो कृपया अंग्रेजी चलन के जूते पहनिए, भारतीय चप्पल मत पहनिए जैसा कि आप अपने घर में पहनते हैं। उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिए बुध्दिमता नहीं होगी। मैं चप्पल को नहीं छोड़ना चाहता। मैं अंग्रेजी जूते पहन लूँगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूँगा और इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएं हल हो सकती हैं।
हमारे संविधान में बहुत से विवाद उठ खड़े हुए हैं और बहुत से प्रश्न उठे हैं जिन पर गंभीर मतभेद थे किंतु हमने किसी न किसी प्रकार उनका निपटारा कर लिया। यह सबसे बडी खाई थी जिससे हम एक दूसरे से अलग हो सकते थे। हमें यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि दक्षिण हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को स्वीकार नहीं करता, तब क्या होता। स्विटज़रलैंड जैसे छोटे-से, नन्हे से देश में तीन भाषाएं हैं जो संविधान में मान्य हैं और सब कुछ काम उन तीनों भाषाओं में होता है। क्या हम समझते हैं कि हम केंद्रीय प्रशसकीय प्रयोजनों के लिए उन भाषाओं को रखने की सोचते जो भारत में प्रचलित हैं तो क्या हम सब प्रांतों के साथ रख सकते थे, सभी में एकता करा सकते थे? प्रत्येक पृष्ठ को शायद पंद्रह-बीस भाषाओं में मुद्रित करना पड़ता।
यह केवल व्यय का प्रश्न नहीं है। यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा । हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे, उससे हम एक दूसरे के निकटतम आते जाएंगे। आखिर अंग्रेजी से हम निकटतम आए हैं क्योंकि यह एक भाषा थी। अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है, इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्टतर होंगे, विशेषत: इसलिए कि हमारी परंपरा एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुध्दिमानी का कार्य किया है। मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी सन्तति इसके लिए हमारी सराहना करेगी ।“
इस पुस्तक के लेखक डॉ.विमलेश कांति वर्मा ने अपनी भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि १९४९ से १९५० तक के दस्तावेज़ के आधार पर लिखी है। भारत की स्वाधीनता के बाद से संविधान बनने और पारित होने तक के चार वर्षों में देश के महान नेताओं के बीच हिंदी को संवैधानिक मान्यता दिए जाने के संबंध में हुई बहस का विवरण इस पुस्तक में उपलब्ध है।
हिंदी भाषा के विवाद में तत्कालीन भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी उस भाषण को फिर एक बार सभी ने पढना चाहिए। संबंधित भाषण भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित राष्ट्र भाषा से राज भाषा तक पुस्तक से साभार प्रस्तुत है।
“ अब आज की कार्यवाही समाप्त होती है, किंतु सदन को स्थगित करने से पूर्व मैं बधाई के रुप में कुछ शब्द कहना चाहता हूँ । मेरे विचार में हमने अपने संविधान में एक अध्याय स्वीकार किया है जिसका देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पडेगा। हमारे इतिहास में अब तक कभी भी एक भाषा को शासन और प्रशासन की भाषा के रुप में मान्यता नहीं मिली थी। हमारा धार्मिक साहित्य और प्रकाशन संस्कृत में सन् निहित था। निस्संदेह उसका समस्त देश में
अध्ययन किया जाता था, किंतु वह भाषा भी कभी समूचे देश के प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती थी। आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा लिखी है जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी और उस भाषा का विकास समय की परिस्थितियों के अनुसार ही करना होगा ।
मैं हिंदी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता । मेरा यह भी दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंश दान है, किंतु सामान्य व्यक्ति में हमारा उस भाषा का क्या रुप होगा जिसे हमने आज संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार की है। हिंदी में विगत में कई-कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियाँ हैं, पहले हमारा बहुत-सा साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया था। अब हिंदी में खड़ी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी-अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति ही होगी, अवनति नहीं होगी।
हमने अब देश का राजनैतिक एकीकरण कर लिया है। अब हम एक दूसरा जोड़ लगा रहे हैं जिससे हम सब एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक हो जाएंगे। मुझे आशा है कि सब सदस्य संतोष की भावना लेकर घर जाएंगे और जो मतदान में हार भी गए हैं, वे भी इस पर बुरा नहीं मानेंगे तथा उस कार्य में सहायता देंगे जो संविधान के कारण संघ को भाषा के विषय में अब करना पड़ेगा ।
मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हूँ । 1917 में जब महात्मा गांधी चंपारण में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिंदी प्रचार का कार्य आरंभ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्य देव और गांधी जी के प्रिय पुत्र देव दास गांधी ने वहां जाकर यह कार्य आरंभ किया। बाद में 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य
स्वीकार किया गया और वहां कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षो में इस कार्य से संबंध रहा हूँ, यद्यपि मैं इसे घनिष्ट संबंध का दावा नहीं कर सकता । मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे को गया और मेरे हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के संबंध में महात्मा गांधी के अनुरोध के अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है। मैं जानता हूँ कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पडा किंतु उनमें इस मामले में जो जोश था वह बहुत सराहनीय था। मैंने कई बार पारितोषिक-वितरण भी किया है और सदस्यों को यह सुन कर मनोरंजन होगा कि मैंने एक ही समय पर दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं, शायद तीन को ही दिए हों-अर्थात दादा, पिता और पुत्र हिंदी पढ कर, परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाण पत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया है। आज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिंदी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को उन्हें बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए।
यदि आज उन्होंने किसी विशेष बात पर हठ किया है तो हमें याद रखना चाहिए कि आखिर यदि हिंदी को उन्हें स्वीकार करना है तो वे ही करेंगे, उनकी ओर से हम तो नहीं करेंगे, और आखिर यह क्या बात है जिस पर इतना वाद-विवाद हो गया है? मैं आश्चर्य कर रहा था कि हमें छोटे-से मामले पर इतनी बहस करने की, इतना समय बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? आखिर अंक हैं क्या ? दस ही तो हैं। इन दस में, मुझे याद पड़ता है कि तीन तो ऐसे हैं जो अंग्रेजी में और हिंदी में एक से हैं। 2,3 और 0 । मेरे खयाल में चार और हैं जो रुप में एक से हैं किंतु उनसे अलग-अलग कार्य निकलते हैं। उदाहरण के लिए हिंदी का 4 अंग्रेजी के 8 से बहुत मिलता-जुलता है, यद्यपि एक 4 के लिए आता है और दूसरा 8 के लिए । अंग्रेजी का 6 हिंदी के 7 से बहुत मिलता है, यद्यपि उन दोनों के भिन्न-भिन्न अर्थ है। हिंदी का 9 जिस रुप में अब लिखा जाता है, मराठी से लिया गया है और अंग्रेजी के 9 से बहुत मिलता है। अब केवल दो-तीन अंक बच गए जिनके दोनों प्रकार के अंकों में भिन्न-भिन्न रुप हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। अत: यह मुद्रणालय की सुविधा या असुविधा का प्रश्न नहीं हैं जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है। मेरे विचार में मुद्रणालय की दृष्टि से हिंदी और अंग्रेजी अंकों में कोई अंतर नहीं है।
किंतु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते हैं, और मैं अपने सब हिंदी मित्रों से कहूँगा कि वे इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिए स्वीकार करें कि हम उनसे हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते हैं और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्यधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर यह बहुत बडी रियायत नहीं है। हम उनसे हिंदी स्वीकार करवाना चाहते थे और
उन्होंने स्वीकार कर लिया, और हम उनसे देवनागरी लिपि को स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली। वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे, उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यो होनी चाहिए? इस पर मैं छोटा-सा दृष्टांत देता हूँ जो मनोरंजक होगा । हम चाहते हैं कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते हैं। वे कहते हैं, आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं, उसके लिए आपका स्वागत है। किंतु जब आप हमारे घर आएं तो कृपया अंग्रेजी चलन के जूते पहनिए, भारतीय चप्पल मत पहनिए जैसा कि आप अपने घर में पहनते हैं। उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिए बुध्दिमता नहीं होगी। मैं चप्पल को नहीं छोड़ना चाहता। मैं अंग्रेजी जूते पहन लूँगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूँगा और इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएं हल हो सकती हैं।
हमारे संविधान में बहुत से विवाद उठ खड़े हुए हैं और बहुत से प्रश्न उठे हैं जिन पर गंभीर मतभेद थे किंतु हमने किसी न किसी प्रकार उनका निपटारा कर लिया। यह सबसे बडी खाई थी जिससे हम एक दूसरे से अलग हो सकते थे। हमें यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि दक्षिण हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को स्वीकार नहीं करता, तब क्या होता। स्विटज़रलैंड जैसे छोटे-से, नन्हे से देश में तीन भाषाएं हैं जो संविधान में मान्य हैं और सब कुछ काम उन तीनों भाषाओं में होता है। क्या हम समझते हैं कि हम केंद्रीय प्रशसकीय प्रयोजनों के लिए उन भाषाओं को रखने की सोचते जो भारत में प्रचलित हैं तो क्या हम सब प्रांतों के साथ रख सकते थे, सभी में एकता करा सकते थे? प्रत्येक पृष्ठ को शायद पंद्रह-बीस भाषाओं में मुद्रित करना पड़ता।
यह केवल व्यय का प्रश्न नहीं है। यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा । हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे, उससे हम एक दूसरे के निकटतम आते जाएंगे। आखिर अंग्रेजी से हम निकटतम आए हैं क्योंकि यह एक भाषा थी। अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है, इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्टतर होंगे, विशेषत: इसलिए कि हमारी परंपरा एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुध्दिमानी का कार्य किया है। मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी सन्तति इसके लिए हमारी सराहना करेगी ।“
विजय जी, इस लेख (भाषण) के महत्व को देखते हुए इसका लिंक मैने हिन्दी विकि के "भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी" पर दे दिया है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुनाद जी।
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर गुजरात हाईकोर्ट का राष्ट्रभाषा के संदर्भ में एक जनहित याचिका पर जो फैसला आया, उसमें नियमों और कानूनों से बंधी कोर्ट की बेबसी तड़पा देने वाली है। डिब्बाबंद सामग्री पर हिंदी में निर्देश न छपवा पाने के फैसले का आधार बना हिंदी का राष्ट्रभाषा न होना... कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? दरअसल इस खबर के सिलसिले में ब्लाग मनीषियों के विचार पढ़ते हुए आपकी चौखट पर आया तो कई नए आयाम नजर आए। गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर यह कालिमा आपको सप्रेम ताकि आप इस स्याही बना कर अपने जानने-पढऩे समझने वालों को जागरुक करने में एक और मजबूत कदम उठाएं। हिंदी की अलख के लिए शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअगर इस देश में नेता हर व्यक्ति के वोट पर चुना जाता है तो राष्ट्रभाषा का भी चुनाव व्यक्ति के वोट पर क्यों नहीं ? जनगणना के आँकडें बताते है कि इस देश में हिंदी राष्ट्र की प्रमुख भाषा है। केंद्र सरकार की राजभाषा हिंदी है तो इसका प्रचार प्रसार पुरे राष्ट्र में करने का अधिकार सरकार के पास उपलब्ध है। अब हमें सरकार को बाध्य करना होगा क्योंकि संविधान के अनुच्छेद ३५१ के अनुसार हिंदी के विकास का दायित्व केंद्र सरकार के पास उपलब्ध है। सरकार को जगाना होगा।
जवाब देंहटाएंDelhi High court allows RTI activist Mr. Rakesh Kumar Singh to file PIL against “Indian Rupee symbol selection process”.
जवाब देंहटाएंMr. Rakesh Kumar Singh had submitted a LPA petition in the Delhi High Court challenging Delhi HC earlier judgment in which court had refused to entertain his petition challenging selection process of New Indian Rupee Symbol.
After hearing the LPA, Hon’ble Chief Justice and Hon’ble Mr. Justice Sanjiv Khanna of Delhi High Court in their judgment said “We learned senior counsel appearing for the appellant submitted that he may be permitted to withdraw the appeal as he really does not have the grievance solely because the symbol has not been accepted but he intends to challenge the procedural aspects which are adopted by the Union of India at various levels relating to such kind of works which affect various provisions of the Official Languages Act and many other provisions of various statutes as well as Article 14 of the Constitution of India.
If we understand the submission of Mr. Sawhney in a proper perspective, he wants to file a petition in the larger public interest.
In view of the aforesaid, we are inclined to permit the withdrawal of the appeal with liberty to file a Public Interest Litigation with the appropriate pleadings and data which are necessary to sustain a Public Interest Litigation.” Order: LPA 310/2011
http://www.saveindianrupeesymbol.org/
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जवाब देंहटाएंहिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार किये जाने का कोई नोटिफिकेशन या सुप्रीम कोर्ट अथवा हाईकोर्ट में लगाई गयी कोई याचिका या केस के बारे में कोई जानकारी हो तो कृपया मार्गदर्शन करें? आप और हमारे द्वारा इसे राष्ट्र भाषा मान लिये जाने से क्या फर्क पड़ता है, यह आधिकारिक रूप से क्यों नहीं स्वीकार की जा रही है, क्या इसका कोई कारण है? कृपया जनहित में स्पष्टीकरण देने की कृपा करें।
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