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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

भावी पीढ़ियों के लिए मूल भाषाओं में प्राण फूंकने की पुकार

हाल के दशकों में पुरखों के ज़माने से चली आ रही सैंकड़ों भाषाएं धीरे धीरे शांत होने लगी हैं. उन्हीं के साथ विलुप्त हो गई है उन्हें बोलने वाले लोगों की संस्कृति, ज्ञान और परंपराएं. जो भाषाएं बच गईं हैं उन्हें संरक्षित रखने और नए प्राण फूंकने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने मूल भाषाओं के अंतरराष्ट्रीय वर्ष की आधिकारिक शुरुआत की है. 


अपने उदघाटन संबोधन में मोहाक समुदाय के प्रमुख कैनन हेमलॉक ने पृथ्वी को श्रृद्धांजलि अर्पित की. "मूल निवासियों के तौर पर हमारी भाषाएं पृथ्वी की भाषाएं हैं और ये वो भाषाएं हैं जिन्हें हम अपनी मां के साथ बोला करते थे. हमारी भाषाओं का स्वास्थ्य पृथ्वी के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है."


"हम अपना संपर्क खो देंगे और फिर  पृथ्वी को जानने समझने की सदियों पुरानी जानकारी चली जाएगी. हमारे भविष्य और आने वाली पीढ़ियों के लिए ज़रूरी है कि हम अपने पुरखों की भाषाओं का उपयोग करें."

संयुक्त राष्ट्र महासभा अध्यक्ष मारिया फ़र्नान्डा एस्पिनोसा ने मूल भाषाओं और पैृतक संस्कृति और ज्ञान में अहम संबंध को रेखांकित किया. "वे संप्रेषण के माध्यम से कहीं ज़्यादा हैं. वे मानवीय विरासत को आगे बढा़ए जाने का ज़रिया हैं."

"हर मूल भाषा का मानवता के लिए एक ख़ास अहमियत है जो इतिहास, मूल्य, साहित्य, अध्यात्म, परिप्रेक्ष्य और ज्ञान का अपार खजाना है जिसे सदियों से विकसित और पोषित किया गया है. जब कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके बाद उसके साथ जुड़ी स्मृतियों को भी वो ले जाती है."

"मूल भाषाएं लोगों की पहचान का प्रतीक हैं, जीवन जीने का तरीक़ा हैं और पृथ्वी के साथ संबंध को अभिव्यक्त करने का माध्यम." एस्पिनोसा ने उन्हें बचाए जाने को बेहद अहम करार दिया है. 

मूल भाषाएं पुरखों के ज़माने से चली आ रही ज्ञान प्रणालियों और प्रथाओं के बारे में भी अवगत कराती हैं विशेषकर कृषि, जीव विज्ञान, चिकित्सा, खगोल शास्त्र और मौसम विज्ञान से जुड़ा ज्ञान.  दुनिया में इस 4,000 मूल भाषाएं अब भी मौजूद हैं लेकिन अधिकतर विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रही हैं. 

"यह अंतरराष्ट्रीय वर्ष एक ऐसा मंच बनना चाहिए जिसके ज़रिए हम तेज़ी से ख़त्म होती भाषाओं के इस रुझान को पलट सकें. उन्हें बचा सकें और पोषित कर सकें. ऐसी शिक्षा प्रणाली को विकसित कर सकें जिसमें मातृ भाषा से सीखने पर ज़ोर हो."

बोलिविया के ईवो मोरालेस ने औपनिवेशिक ताकतों से मूल निवासियों और भाषाओं को बचाने पर बल दिया. "औपनिवेशिक काल से बच कर हम आज यहां तक आए हैं. उस समय हमारे पुरखों को उनके घुटनों के बल ला दिया गया था और अन्याय के बोझ तले कुचल दिया गया था."

उपस्थित लोगों से मोरालेस ने कहा कि संवाद के ज़रिए ऐसी नीतियों को बनाया जाना चाहिए ताकि मूल निवासियों का जीवन, पहचान, मूल्य और संस्कृति की रक्षा हो सके.  

90 देशों में 77 करोड़ से अधिक मूल निवासी रहते हैं जो वैश्विक जनसंख्या का छह फ़ीसदी है. वे जैव विविधता वाले इलाक़ों में रहते हैं लेकिन मोरालेस ने ध्यान दिलाया कि पूंजीवादी लालच ने उन्हें दुनिया के सबसे ग़रीब 15 फ़ीसदी जनसंख्या में ला छोड़ा है. 

साभार-संयुक्त राष्ट्र संघ

https://news.un.org/hi/story/2019/02/1010662

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