रविवार, 17 जनवरी 2010

आदिवासियों के लिए गुँजते रहेंगे - नगाड़े की तरह बजते शब्द

अभी हाल ही में संथाली भाषा को संविधान में प्रमुख भारतीय भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ है। भारतीय ज्ञानपीठ ने संथाली भाषा की सशक्त कवयित्रि निर्मला पुतुल का काव्य संग्रह ' नगाडे की तरह बजते शब्द' का प्रकाशन किया है। झारखंड के दुमका की निर्मला पुतुल संथाल आदिवासी की नई सुशिक्षित पीढी का प्रतिनिधित्व करती है।
उनकी कविताओं में आदिवासी समाज की पीडा, अत्याचार शोषण के खिलाफ बेचैन आवाज निकलती है।
इस संग्रह के अलावा उनका दिल्ली के रमणिका फाउंडेशन द्वारा 'अपने घर की तलाश में ' संग्रह प्रकाशित हुआ है।
निर्मला पुतुल की रचनाएँ भारत की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है। साहित्य अकादमी नई दिल्ली ने उन्हें आदिवासी युवा कवियित्रि के रुप में पुरस्कृत किया है। यह पुरस्कार संथाली भाषा की सशक्त
रचनाकार होने के नाते उन्हें प्राप्त हुआ है। इनकी कविताओं का सशक्त हिंदी अनुवाद झारखंड के दुमका के हिंदी के सुपरिचित कवि श्री अशोक सिंह ने किया है।
हिंदी प्रदेश से संबंधित होने के कारण यह हिंदी साहित्य की नविन पहचान है। सुप्रसिध्द बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवीजी ने उन्हें सम्मानित किया है।
हिमाचल प्रदेश के एक साहित्यिक संगोष्ठी में हिंदी समीक्षा के महापुरुष मा. श्री नामवर सिंह ने नवलेखकों कहां था कि निर्मला पुतुल की रचनाओं को पढो। आदिवासी होकर भी उनकी कविता में समाज के प्रति गंभीर चिंतन है।
हमारे समाज में दलित, हरिजन गांव के बाहर रहते है। उनकी पीडा दु:ख को उजागर किया जा रहा है।लेकिन गांव से दूर जंगल में रहनेवाले आदिवासियों की सुद लेने की जरुरत हमने कभी महसूस नहीं की ।
हमने अपने स्वार्थ के लिए पेड कटवाये, जंगल का घोर विनाश किया । मनुष्यता की अबोध निर्मल जीवन प्रणाली को नागर संस्कृति ने भ्रष्ट किया । उनकी कविताओं में निरीहता, भोलापन, निश्छलता, पवित्रता और निर्दोषता है।
' नगाडे़ की तरह बजते शब्द यह घोषित करता है कि जंगल में शहरी आदमी घुंस कर आया है। आदिवासियों में किसी घटना या सतर्कता के लिए विशिष्ट आवाज नगाडे से निकाली जाती है। इसी आवाज से संपर्क बनता है। आदिवासी सजग हो जाता है।
निर्मला कहती है -
' देखो अपनी बस्ती के सीमांत पर
जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड कुल्हाडियों के सामने असहाय
रोज नंगी होती बस्तियाँ ।
एक रोज माँगेगी तुमसे तुम्हारी खामोशी का जवाब।
सोचो- तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते है
तुम्हारा मुँह चिढाते हुए तुम्हारी ही बस्ती की दूकानों पर
कैसा लगता है तुम्हे ? जब तुम्हारी ही चीजें
तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती है।
निर्मला का आरोप है कि वे लोग दबे पांव आते है आदिवासी संस्कृति में और उनके नृत्य की प्रशंसा करके हमारी हर कला को धरोहर बताते है। लेकिन वे सब सौदागर है जो जंगल की लकडी और आदिवासी कला संस्कृति नृत्य का कारोबार चलाते है।
किताबों से दूर रहकर जंगल पर निर्भर रहनेवाला आदिवासी आज रोजी रोटी के लिए बेहाल है। उनके बच्चे शहरों में, गाँव में दूकान पर मजदूरी करते है और उनकी लडकियाँ गाडी में लादकर कोलकोता, नेपाल, दिल्ली की बाजार में बिक्री के लिए खडी कर दी जाती है।
संताल परगाना में आदिवासी संस्कृति अब धीरे धीरे नष्ट होती जा रही है। अब आदिवासी के तीर-धनुष, मांदल, नगाडा , पंछी, बाँसुरी संग्राहलय में प्रदर्शन के लिए रखी जा रही है। अब उनके हजारों किस्से बच गए है जो आदिवासी संगोष्ठी में शहरी लोग बयान करते है।
कवयित्री निर्मला का विद्रोह अपनी कविता में लावा रस की तरह उबाल रहा है। आदिवासी का सवाल यह है कि हमारे बिस्तर पर हमारी बस्ती का बलात्कार करके हमारी जमीन पर खडे होकर
हमारी औकात पुछनेवाले आप शहरी, गांववाले कौन हैं ?
कवयित्री ने 'संताली लडकियों के बारे में कहा गया है ' इस कविता में आदिवासी नारी का सहज, अबोध सौंदर्य का मनोहारी रुप प्रकट किया है। आदिवासी नारी देह का वर्णन करनेवाले को वह कहती है
कि वह निश्यच ही हमारी जमात का खाया पीया आदमी होगा जो सच्चाई को एक धुंध में लपेटता निर्लज्ज सौदागर है।
कवयित्री अपने भोले आदिवासी समाज को सचेत करती है। अपनी जमीन, जंगल और संस्कृती को बचाये रखने का आवाहन करती है। ' चुडका सोरेन ' कविता में आदिवासी बंधु को पुछती है तुमको वे लोग प्रजातंत्र के दिवस पर दिल्ली के कार्यक्रम में प्रदर्शित करते है। लेकिन क्या आपको मालूम है प्रजातंत्र किस चिडिया का नाम हैं?
' जीवन रेखा' ट्रस्ट के माध्यम से संथाल आदिवासियों की समाज सेवा करते हुए कवियित्री का संपर्क अनेक आदिवासियों के जनजाति से हो रहा है। संथाल आदिवासी की इस सुशिक्षित कवयित्री ने समाज
शास्त्र का गंभीर अध्ययन किया है। आदिवासियों का आर्थिक एवं सामाजिक विकास करते समय उसने यह जाना है कि साहित्य की निर्मिति केवल स्वातं सुखाय नहीं है। अपने आदिवासी समाज पर चिंतन करते हुए उनकी कविताएँ मानवीय संवेदना, नारी पीडा और असवसरवादी मानसिकता पर प्रकाश डालती है।
संथाली भाषा की एक उमदा यूवा कवयित्री के पास हिंदी साहित्य की उंचाई छूने की ताकद है। उनकी कविताएँ सहज सरल और सीधे हदय को भिडनेवाली है। इन कविताओं में वर्तमान आदिवासी, समाज की संवेदना गंभीर चिंतन के साथ उभर कर आयी है। उनका भविष्य उज्जवल है।

अनाथ गरीबों के हितों के लिए कोई मशाल जलाओ

अहमदनगर शहर के सुपरिचित युवा कवि अनिल कुडिया 'नगरी' का 'मशाल उठाओ' यह प्रथम काव्य संग्रह अगस्त 2004 में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का प्रकाशन सुप्रसिध्द कवि उर्मिल ने किया है। दिल्ली के कल्पतरु प्रकाशन ने आकर्षक मुखपृष्ठ एवं सुंदर कलेवर के साथ इसे छापा है।
अहमदनगर शहर के रक्षा लेखा कार्यालय में बहुत दिनों से कार्यरत अनिल कुडिया जी अब पुणे स्थित कार्यालय में हिंदी अधिकारी पद पर कार्यरत है। प्रयोजन मूलक हिंदी और साहित्य में स्नातकोत्तर इस कवि ने बी.एड कोर्स भी पूरा किया है। कार्यालय में अनुवाद और प्रशासकिय हिंदी कार्य करते हुए अनिल कुडिया हिंदी कविता के साथ अनेक वर्षों से जुडे रहे। अहमदनगर में यदाकदा आयोजित हर किसी हिंदी कवि सम्मेलन में भाग लेते रहे है । नौकरी और साहित्य प्रेम के अलावा इन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में भी अपना नाम रोशन किया है। वेश्याओं और उनके बच्चों के पूनर्वास के लिए समर्पित समाजसेवी संस्था 'स्नेहालय' के संस्थापक सदस्य होने के नाते आपने निराधार बालक और शोषित नारी के उत्थान में मानवीय संवेदना के साथ प्रामाणिक कार्य किया है। अपने जीवन में भोगे हुए यथार्थ को कविता के माध्यम से प्रकट किया है। अनिल कुडिया की कविताएँ सोफे पर बैठकर कल्पना की प्रतिभा से नहीं बल्कि जीवन के दाहक अनुभवों से गुजर कर लिखी हुई है।
छोटे शहर से अनिल महानगरी पुणे और मुंबई के साहित्यिक गुट में शामिल हुए । प्रतिभावान और सच्चे अनुभवों के बोल अनेकों को भा गए । कवि उर्मिल ने इस प्रथम काव्य संग्रह प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अनिल कुडिया को अभीष्ट पद प्राप्त होने का आशिर्वाद देते हुए कवि उर्मिल कहते है -
अहमदनगर शहर के यूवा कवि अनिल कुडिया 'नगरी' द्वारा लिखित 'मशाल उठाओ ' काव्य संग्रह की रचनाएँ मानवीय संवेदनाओ के साथ जुडी हुई है। आपकी कविता में सच्चाई है, धरती की खुशबू है और संवेदनाओं से भरी अनुभूति का आविर्भाव है। मान्यताओं को चुनौती देते हुए शोषण का प्रतिकार करनेवाले कवि अनिल ने अपनी सर्जन यात्रा में जाने-पहचाने संदर्भों के स्पर्श के साथ साथ चिंतन का आधार लेते हुए समीक्षकों के अनुत्तरित प्रश्नों का हल दिखाया है। एक ऐसा प्रस्थान दिखाया है कि आगे की लंबी यात्रा में बिछुडे हुए सभी को जुडने का मौका मिले।
इस संग्रह की भूमिका पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य एवं हिंदी विभाग अध्यक्ष डॉ. केशव प्रथमवीर जी ने लिखी है। उनके अनुसार दलित, पीडित, शोषित और उपेक्षित आम जनता को त्रस्त करनेवाले समाज के दरिंदों, धार्मिक ठेकेदारों, राजनेताओं तथा विभिन्न प्रकार से आर्थिक शोषण करनेवालो के रक्तरंजित दांतो को पहचान लेनेवाला यह कवि संघर्ष और जागृति की मशाल उठाकर कहता है-
रोज की चर्चाओं को विराम लगाओं
अपने बिलों से बाहर आओ
न्याय हथौडा हाथ में उठाओ
बिगडे सांडो को नकेल पहनाओं
जागो और जगाओ
मशाल उठाओ ।

आओ हम कविता संग्रह के अंदर झांक कर देखें ।
निराधार नाबालीग बच्चों को फूटपाथ पर बुट पॉलिश करते हुए या किसी होटल में टेबल साफ करते हुए बच्चों को देखकर कवि अपनी ' नाबालिग बुढे ' कविता में कहता है -
' जिंदगी के स्कूल में पढते है
जिंदा रहने के लिए जिंदगी से लडते हैं।
ये हालाती बुढे
एक पूरा परिवार चलाते है।
हर बाल दिवस पर इन बुढों को
बच्चा बनाने की कई योजनाएँ बनाई जाती है ।
जिनके लागु होने से पहले ही
नाबालिग बुढों की नई फौज पैदा हो जाती है।

कवि कहता है कि
' इस जालिम जिंदगी में
सिर की धूप और पेट की भूख ने
मेरे मन को दर दर भटकाया है।'
इस दर-दर भटकने की यात्रा में कवि ने दाहक संवेदनाहिन अनुभवों को झेला है। इस मानवीय विसंगतियों को चिंतन के सहारे शब्दों में ढाला है।
महापुरुषों के आदर्श हमारे सामने रखें जाते है। उनके आदर्श नि:संशय महान है। लेकिन नीजी प्रयासों के सिवाय कोई भी यात्रा निरर्थक हो जाती है। कवि विद्रोही बनकर अपनी आत्म शक्ति को ढुंढने की सलाह देता है।
संजीवनी कविता में वह कहता है -
कब तक कहां तक कोई
फूले गांधी अंबेडकर
हमें बैसाखियाँ थमाएंगें
और कंधे पर बैठकर
हम कैसे नदी पार कर पाएँगें।
हमारे देश की आबादी बाढ की तरह बढ रही है। अनेक योजनाएँ जनसंख्या की आबादी में बह जाती है। बिन बच्चे वाले अमीर परिवार के लिए विज्ञान ने टेस्ट टयूब बेबी का सफल अविष्कार किया है।
इस पर व्यंग्य कसते हुए कवि कहता है -
नारियों को प्रसव पीडा से बचाया है,
अब कोई दूसरों का पाप नहीं अपनाएंगा ।
हर बांझ के घर कांच का बच्चा आएगा
वाह रे विज्ञान तेरा दान
लाखों अनाथों के दु:ख से रहा तू अनजान !
इस कविता संग्रह में चार लाईनवाले चौके भी कवि ने लगाए है। जो एक सुविचार की तरह मार्गदर्शक है।
शहर की बनावटी जिंदगी को शब्दों में उजागर करते हुए कवि लिखता है -
' चेहरा संभालते है शहरी
संबंध संभालते है देहाती
अपनी अपनी जिम्मेदारियाँ है
शहर गांव में यही दूरियाँ हैं।
अनाथालय के बच्चों के प्रति कवि के मन में दया भाव है। जो बचपन भूख प्यास में गुजर जाता है उसकी जवानी क्या हो सकती है ?





इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए कवि कहता है -
कोई भी बच्चा अनाथालय में न पले
फूल अन्याय, अत्याचार, तिरस्कार
सहते हुए न खिलें
जिन बच्चों की माँ नहीं है।
उनके लिए हमें कुछ करना चाहिए !
धर्म के नाम पर हर कोई इंसानियत की हत्या करें और उसे धर्म के पालन करनेवाला मानकर धर्मप्रेमी माना जाए तो गुलशन उजाडने में कोई समय नहीं लगेगा । हमें इस धर्म की बंदूक को दूर करके भाईचारे की रोटी हमनिवाला लेकर इंसानियत को रोशन करना चाहिए।
बेतुका बवाल कविता में बेटी ने पुछे हुए बेतुके सवाल पर कवि अकल की बात कहता है -
बच्ची ने मुझसे पूछा -
सडकों पर सन्नाटा और अस्पताल में शोर क्यों है,
पापा सडकें तो कैजुअल लीव पर है बेटी
अस्पताल में रंगाई का काम चल रहा है।
हर सफेद चादर लाल की जा रही है।
ये होली के दीवानों की टोली
उसी की ओर जा रही है।
मत देख इन्हें वरना तुझे भी रंग देंगे।
आसुंओं से रंग नहीं धुलता है।
नन्हीं लाशें देखकर दिल बहुत जलता है
और बच्चों का तो मुआवजा भी
कम मिलता है।
कवि ने जीवन के दु:ख, वेदना को करीब से देखा है। घायल मन ही घायल की गति जानता है। खाली विद्रोह प्रकट करने से प्रश्नों के उत्तर मिलते नहीं । कुछ चिंतन और कुछ हल ढुंढ निकला जाए यही दृष्टी
लेकर कवि आगे बढ रहा है।

पीठापुरम यात्रा

 आंध्र प्रदेश के पीठापुरम यात्रा के दौरान कुछ धार्मिक स्थलों का सहपरिवार भ्रमण किया। पीठापुरम श्रीपाद वल्लभ पादुका मंदिर परिसर में महाराष्ट्...